वक़्त अब है कम
(अम्मी की एक सहेली होती थी नज़्मा-मौसी. उर्दू लिटरेचर पढ़ाती थी और बहुत ही जज़्बाती थी. वकार नाम के एक शख्स से उनको इश्क हो गया था......वकार साहिब बँटवारे के बाद उस पार चले गये शायद अपने घरवालों के दवाब में और उनका साथ देने...... और फिर वो लौट के नहीं देख पाए. नज़्मा उनकी यादों में तड़फती रही.नज़्मा मौसी इंतेज़ार की तड़फ़ में खुद को एक जानलेवा बीमारी के हाथों हवाले कर बैठी और बेवक़्त खुदा को प्यारी हो गयी. आखरी वक़्त में उनके दिमागी हालत भी बिगड़ गये थे......सूखे पीले पड़े बदन, कंकाल हुए जिस्म के बावजूद भी खुद को सजाती सँवारती थी और मेहन्दी लगाती थी...इस उम्मीद में कि वो चला आए............ उन्ही के जज्बातों को लफ्ज़ देने की कोशिश कर रही है यह नज़्म)
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आँख है पूर-नम तुम चले आओ
साँस आए है कुछ कम तुम चले आओ.
धड़कने पुकारती है शब-ओ-दिन
थम सी गयी है रम तुम चले आओ.
उजड़ा सा लगता है ये आलम हम को
बस उसका ही है करम तुम चले आओ.
रूह है जवान जिस्म ढलने को आया
रिश्तों में है गर दम तुम चले आओ.
दिन-ओ-रात बिस्तर बना है घर मेरा
उठ रहे ना कदम तुम चले आओ.
हर पल नाम लेते तिरा तुझे सोचते हैं
जिंदगी बन गयी है सम्म तुम चले आओ.
मेहंदी लगाए बैठे हैं तेरे लिए
गेसू हुए बे- ख़म तुम चले आओ
आँख भर देख लेंगे बस तुम को
वक़्त आब है कम तुम चले आओ.
रम=भाग दौड़
सम्म=जहर
ख़म =घुमाव
करम=कृपा
गेसू =केश(hair)
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