पाखंडी आख्यान
(पाखंडी का शाब्दिक अर्थ है: छली /ढोंगी. कुछ इनोसेंट पाखंडी भी होते है जो स्वांत सुखाय: पाखंडी होते है याने बहुरूपिये ...जिन्हे एंजाय किया जाता है. मगर छलिया ढोंगी बहुत ख़तरनाक होते हैं घुन की तरहा जहाँ लगते है उस दाने को खोखला कर देते हैं ...कविता के नायक/नायिका ऐसे ढोंगी-छलिया हैं , उन्हें पहचानने में यह रचना मदद कर सकेगी तो इसकी कामयाबी होगी.
यहाँ इस्तेमाल सोरठा शैली-राजस्थानी भाषा के कवि 'राज़िया' से प्रेरित है. एक उदाहरण:
"काली घणी करूप, कस्तूरी काँटा तुले
शक्कर घणी सरूप, , रोड़ा तुले राज़िया."
कस्तूरी का रंग काला होता है, कुरूप सी लगती है,मगर इतनी कीमती होती है इसलिए सेठजी अपने हाथों उसे छोटी सी तुला पर तोलते हैं ....चीनी सफेद होती है और सुंदर भी दिखती है लेकिन उसे बोझा ढोने वाले श्रमिक पत्थरों से तोलते हैं .......गुण प्रबल और प्रमुख होते हैं .
इसमें करूप और सरूप का तुक मिलता है......और दोनो पंक्तियों का अंत अतुकांत है. )
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पाखंडी आख्यान
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सदा रहे बेचैन , चिंतन स्वार्थ दिन-निशि
भूले अपने बेन, जब घड़ी आए स्व-ध्येय की.
मीठी भाषा बोलकर, दुहे मतलब हर घड़ी
गरल विषम घोलकर, देवे प्याली मृदु पेय की.
जीवन हुआ जटिल, कुंठित मन तन अंग-प्रत्यंग
स्वाभाव हुआ कुटिल, है दृष्टि बस निज ध्येय की.
देख औरों का मेल, मन ही मन ईर्ष्या करे
खेले भोंडा खेल, और बातें करे अज्ञेय की.
संकीर्ण है विचार, भाषण औदार्य का करे
कृतिम है आचार,है मिथ्या स्तुति श्रद्धेय की.
लीला अपरंपार, फरेब मक्कारी सर चढ़े
बातें बारंबार, करे अचौर्या और अस्तेय की.
हीन भावना हृदय बसे, दंभी विकट स्वभाव
भ्रम प्रवंचना असत हँसी, चिंता करे ना देय की.
पाखंडपूर्ण व्यवहार,समझे सुधि जन शीघ्र
दे सदैव क्षमा उपहार , करे ना अपेक्षा श्रेय की.
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औदार्य =उदारता
अस्तेय /अचौर्या=चोरी ना करना
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