एक मंडूक सलीब पर
(यह एक ताज़ा happening का अपने शब्दों में अभिव्यक्त करना है...जो अध्यात्म और कला के स्वरूप से संबंधित कई प्रश्न खड़े कर रही है...२९ सितम्बर, २००८ को लिखी)
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मंडूक ने
बना दी है आज
हेड-लाइन्स,
मीडिया में.
कहता है पोप,
क्यों बनाया था,
मरहूम आर्टिस्ट
मार्टिन किप्पेनबर्जर ने
यह लकड़ी का स्कल्पचर .
कोई अठारह साल पहिले
1990 में.....
तब से यह
घूम चुका है
लन्दन ,वेनिस,
लॉस-एंजेल्स
न्यू यॉर्क और
अब रखा है
इटली के एक
अजायाबघर में
ठीक
पोप की नाक के
नीचे.
क्या है इसमें ?
एक दादुर
हरे रंग का
लटका है
सलीब पर
दर्शाते हुए,
इंसानी फ़िक्र,गुनाह
और
पछतावे को
और
शायद कह रहा है
मेरे प्रभु !
हुमें क्षमा करना
हम अनजान है,
नहीं जानते,
हम क्या कर रहें है.
इसे देख
यीशू की याद
आती है.........
उस दया-निधि की
जो शक्तिशाली था
मगर विनम्रा और
क्षमाशील था.
जिसने दया और करुणा
का पाठ
पढ़ाया था...........
ना जाने क्यों
श्रधेय पॉप बेनेडिक्ट
नाराज़ है
उस महरूम कलाकार से
जिसने
पूरी ईमानदारी के साथ
अपनी कला को
अंजाम दिया था
और सादर यीशू को
याद किया था.
यीशू
जिसने दुनिया को
कष्टों से मुक्त होने का
मार्ग बताया,
उसीके स्वयंभू धर्माधिकारी
चुनौती दे रहें है
कला और कलाकार की
आज़ादी को.
दुनियाँ लहुलुहान है
आतंकवाद,युद्ध , भुखमरी,और
ग़रीबी से......और हमारे
धर्मगुरु सोच रहे हैं
अपनी अपनी ढफली
लिए बीती बातों को.
यीशू भी इस देश में
आए थे और
उन्होने देखा था
हम प्रभु को
इंसान ही नहीं
जानवरों के रूप में भी
पूजते हैं ..
क्या मंडूक उसी
ईश्वर का बेटा नहीं
जो हम सब का पिता है.
हे ईश्वर के तथाकथित
बन्दों !
मुझे भी माफ़ करना
मैं जानती हूँ कि
मैं क्या कह रही हूँ.
मेरी नज़र बस उस
आज़ादी पर है जिसका
उद्घोष स्वयं
यीशू ने
किया था.
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