एक बुलावा अश्क बहाने के लिए
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उस दिन
अचानक
एक अरसे के बाद
तुम दिख गये थे
झील किनारे की
भीड़ में.
नज़रें मिली थी,
तुम हम
ठिठक गये थे,
बुत ही
हो गये थे.
मुझे लगा,
आज का सूरज
ना डूबे,
दिन
ठहर जाए
और
तुम भी
ना लौटने के लिए.
तेरी आँखो के काले
कह रहे थे
उदासियों की
संगत ने
तुझे भी
बना डाला था
उदास.
मेरी मुस्कुराहटें
मेरी खुशगवारी
नज़र करनी चाही थी
तुमको
मगर तुझे था
इनकार
बस इनकार.
तुम्हारी तरसती
आँखे,
खोज रही थी
अपनापन
और साथ किसी का
दिल की
तन्हाइयों में..
दुनिया के
दस्तूरों से परे
एक जिंदगी
और भी
हो सकती थी
ना तेरी ना मेरी
तेरी भी मेरी भी
बस अपनी ही.
देखा
जकड़े थे तुम
रिवाजों के
नागफासों में
और
झुठला रहे थे
खुद की दिली
सच्चाइयों को.
जब हँसना खिलना
और
गुनगुनाना
ना था गवारा,
कहा था धीरे से
तुझ को मैंने
आओ ना
हम तुम
संग संग
रो तो लें..
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