Tuesday, 12 August 2014

एक ही प्याले में सुरा पी कर

एक ही प्याले में सुरा पी कर 

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मादक महक 
मेहंदी की
कर गयी थी बेसुध,
लहरा रही थी 
अलकें 
कन्धों पर 
या थी 
घटायें सावन की
झुकी हुई 
मधुशाला पर,
झुके झुके से थे
केश 
या थे 
कोई संदेशे
उतरे हुए 
देवलोक से,
अधरों पर थे
धीमे गीत 
या थी 
वो लीन 
उच्चार में
वेदमंत्रों के,
प्रतिच्छाया 
हर्ष की थी 
मुखमंडल पर 
या था 
कोई शशि 
बरसाता
चांदनी
अँधेरी निशा में, 
बोलों से 
बरस रहा था 
मधु 
या टपक रही थी
बूंदें ओंस की
टहनियों से,
मस्त नज़र उसकी
थी कटार भी 
और 
मरहम भी,
दे रही थी केशराशि 
भान 
भ्रमरों के गुंजन का, 
नेत्रों में थी 
चपलता 
और
कातरता 
हरिणी की, 
दे रहे थे नयन 
अनुभूति 
करतार के
'कुन' कहने की,
लग रहा था 
ज्यों
किशोरावस्था 
और 
यौवन का 
मिलनोत्सव 
हो रहा हो घटित 
एक ही प्याले में 
सुरा पीकर... 

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