Tuesday, 5 August 2014

काला और गौरा : (नायेदाजी)

काला और गौरा 
(रंग भेद, बाज़ार संस्कृति और हमारे मौलिक मूल्यों में वर्तमान में हुए वैश्वीकरण के प्रभाव को बताती नायेदा आपा की यह लम्बी रचना विचारोत्तेजक एवम् आँख खोलनेवाली है.)

# # #
बढ़ गया हो आगे
इन्सान कितना ही,
कायम है उसमें
जड़ताएं और
नफरतें ,
पैमाने वही है
मापने के....

प्रभावित हैं
हम भी कि
गौरा अभिनेता
'ह्यू ग्रांट' करता है
महसूस ‘थ्रिल’
नीग्रो कॉल-गर्ल के
साथ यौनाचार में,
गौरों की देखादेखी
चाहे अमेरिका हो
या यूरोप
हम भी अपना रहेँ है
सौंदर्य के
प्रतिमान उनके
मान्यताएं उनकी
‘तकनीक’ उनकी...

हमारे
दिल-ओ-जेहन में
भरा है
कूट कूट कर,
शख्सियत गौरी ही
होती है
काली कलूटी शक्ल से
बेहतर,
भूल जातें हैं
हम अपने
श्याम सलौने को
और
बाज़ार संस्कृति के
अन्धानुकरण में
खो जाते हैं
विज्ञापनों की
दुनियां में,
या होतें है शिकार
इस मनोवृति को
‘एनकैश’ करने वाले
बाजारी बहुरूपियों से....

कालों के प्रति
अपना रहें है
हम भी हिकारत,
न जाने क्यों
सींच रहे हैं
हम
अपने ही खातिर
नफरत..

अपना रहें है,
गुडिया उनकी
गौरी-चिठ्ठी,
सींक की तरहा
दुबली-पतली
सुनहले बालों वाली,
'बार्बी'
जो बन चुकी है ‘बेंचमार्क’
हमारे नारी सौंदर्य का.
भूल कर
खुजुराहो,अजंता, एलोरा,
भुवनेश्वर, कर्नाटक आदि में
अंकित,
भारतीय सौंदर्य को....

बनाई थी
'बार्बी' बनाने वालों ने
हमारे लिए भी
काली 'बार्बी',
बिकी नाहीं थी जो ---
हम कालों के देश में भी
और
बदलनी पड़ी थी
उत्पादक को भी
विपणन नीति (मार्केटिंग स्ट्रेटेजी),
जम गयी है जड़ों तक
हम में
दुर्भीती (फोबिया) गौरेपन की,
मिलता नहीं किसी भी
वैवाहिक विज्ञापन में
काली लड़की का उल्लेख
चाहिए सब को
सिर्फ गौर-वर्णा...

उत्पादक और विज्ञापन
उकसा रहे हैं
इस हीन ग्रंथि को,
भूल रहें है हम
और दे रहें है बढ़ावा
रंग भेद और नस्लवाद को,
बापू के आंदलनों की
हुई थी शुरुआत
जिसके लिए
दक्षिण अफ्रीका में,
दिया था जन्म जिसने
सत्याग्रह को,
गाँधी,
सत्याग्रह
और
आज़ादी हमारी....

अपसंस्कृति
बाजारवाद की
भुला रही है हमारे
मिटटी के खिलौनों को,
वो मिटटी के लौंधे
और
उनसे बने
हाथी,घोड़े और गुडिया,
लकड़ी का घोड़ा
और कपडे की गुडिया,
दिए जा रहें हैं हम ही
हमारी पौध को
हत्यारे,हिंसक और
प्रतिस्पर्द्धी
खेल खिलौने,
चाहे ‘मिस यूनिवर्स' का हो खेल,
गेम 'AK 56 का
या
खेला रसिंग कोर्स का...

हमें चाहिए
आर्थिक बदलाव
और
सोचों में पश्चिम की
स्पष्टता और ‘फेयरनेस',
ना कि
अपसंस्कृति,
कालेपन से ‘फेयरनेस'
और अपने बच्चों में
हिंसा, प्रतिहिंसा और
भयावह प्रतिस्पर्द्धा के
संस्कार……

वक़्त है अब भी की
हम जागें
और
अपने भारत के लिए
एक आदर्श
प्रारूप बनायें....

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