Tuesday 5 August 2014

गिरहें-धाग-चादारियाँ: कुछ और बातें : (अंकितजी)

गिरहें-धाग-चादारियाँ: कुछ और बातें--
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दोस्तों !
जब भी ऐसे मौके आये
याद करें हम तजुर्बा
जुलाहे का
करें मुआयना
उन टूटे/ख़त्म हुए
धागों का,
एक सही
और
सीधी
सहज सोच के साथ,
भिगो के उनको
मोहब्बत से,
दिल से निकली
मुआफी के साथ,
जोड़ दें फिर से,
और
लगें बुनने फिर से
प्यार की चदरिया ,
गिरहों को नहीं,
देखेंगे
उस सुन्दर सी,
लुभावनी सी
नरम सी
गर्म सी,
झीनी सी
चदरिया को,
धर देंगे उसे
ज्यों की त्यों,
जैसे धरी थी
बादशाह कबीर ने,
उस गुजरे हुए
ज़माने में.

गर न हो
मुमकिन,
जोड़ना
उन टूटे धागों को,
गिरह
ना बन पा रही हो
मज़बूत,
बिखर सकते हों
ताने बने,
या छिड़ सकती हो
चदरिया,
तो लग जाना है
नई बुनाई में,
भुला कर टूटन को,
टूटे धागों को
और
ना बनी गिरहों को,
एक ख़ूबसूरत से कलाम को
गुन-गुनाते हुए,
"वोह अफसाना
जिसे अंजाम तक
लाना हो
नामुमकिन,
उसे एक ख़ूबसूरत
मोड़ देकर
छोड़ना अच्छा"
ना कि उलझ कर
उस दर्द भरे
फ़साने में.
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Notes
ये हैं वे तीन रचनाएँ जिनका जिक्र मैंने अपनी नज़्म 'गिरह धागे और चदरिया' में किया था :


मधुर भाई:

क्यूँ खींच दिया तुमने क्यूँ गाँठ पड़ गयी,
कचे धागे[रिश्ते] की फितरत से क्यूँ तूं अनजान रहा.


रहीम जी:

रहिमन धागा प्रेम का, मात तोड़ो चटकाय,
टूटे से फिर न मिले, मिले गाँठ पड़ जाय....

गुलज़ार:

नज़्म का उन्वान है 'गिरहें'

मुझ को भी
तरकीब सिखा कोई
यार जुलाहे !

अक्सर तुझको देखा है
ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया
या
ख़त्म हुआ
फिर से बांध के
और कोई सिरा जोड़ के
उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में
लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई

मैंने तो
इक बार ही
बुना था
एक ही रिश्ता
लेकिन
उसकी सारी गिरहें
साफ नज़र आती है
मेरे यार जुलाहे !

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