Tuesday, 5 August 2014

आखरी दांव (नायेदाजी)

आखरी दांव 
यह ग़ज़ल एक प्रेम विहीन सम्बन्ध को अल्फाज़ देने की कोशिश है, जहाँ न तो जिस्म मिलतें है न ही रूह. नारी तब भी कोशिश में है कि उसकी मोहब्बत कुछ असर लाये.

मगर बन्दा पर-पीड़क प्रवृति का है जिसे मुहब्बत से कहीं ज्यादा लुत्फ़ किसी पर जुर्म बरपा करने में और किसी को तडफाने और तरसाने में मिलता है.

यह पेशकश आसपास में ओबजर्व की गयी हकीकत पर आधारित है।

आखरी दांव
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जो पथराया बाहिर देहलीज़ वो मेरा पांव था
छोड़ उसको चले जाना बस आखरी दांव था.

मोहब्बत मेरी थी पुरकशिश उसके लिए
दिया प्यार बेशुमार खाली फिर भी ठांव था.

मेरी बदकिस्मती ने मिलाया था उससे मुझको
तपिश में जली थी मैं बस अल्लाह ही छांव था.

मेरी रोई हुई आँखे एक तमाशा था उसको
गिडगिडाना मेरा उसकी मूंछों का तांव था.

तशनगी न बुझ पाई थी ताजिंदगी मेरी
क्या हुआ दरिया किनारे मेरा जो गांव था.

(तशनगी=प्यास, तपिश=गर्मी)

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