Monday, 28 July 2014

धर्म का विकास हो, अधर्म का नाश हो....

धर्म का विकास हो, अधर्म का नाश हो....

रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं। Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी. आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ और कवितायेँ इस से पूर्व भी.)

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बहुत बड़े धर्माचार्य थे वे, एक महान संत परंपरा की श्रृंखला की कड़ी...वेद, वेदांत,उपनिषद् के ज्ञाता......सुना था उनसे :

विराजित है परमात्मा
आत्माओं में हमारी
उसका ही रूप है
सृष्टि यह सारी...
मानव मानव में कोई भेद नहीं
प्राणियों की मैत्री में
है कोई विभेद नहीं
कण कण में बसा है
सर्वव्यापी
उसके बिना कोई रक्त...कोई स्वेद नहीं...
अधर्म का नाश हो
धर्म का विकास हो
लौ लगे हम सब की प्रभु से
मुखमंडल पर सब के मृदु हास हो..
अपने पराये की बातें है संकीर्णता
स्वार्थपरता है मन की जीर्णता
प्रेम है साक्षात् ईश्वर
इर्ष्या द्वेष है हमारी क्षीणता...
तन मन की स्वच्छता
सहयोग की तत्परता
सादा जीवन उच्च विचार
मानव जीवन का श्रृंगार...
कृष्ण सुदामा की प्रगाढ़ मैत्री
राम का मर्यादा अनुपालन
सीता माता का सतीत्व
योगेश्वर कृष्ण का लचीलापन...
कर्मफल का अनूठा दर्शन
पुनर्जन्म का प्रतिपादन
प्रारब्ध की प्रबलता
समक्ष उसके मानव की निर्बलता..
मोक्ष का मार्ग दिखाते थे महा संत
कैसे ना सताए हमें ये दुःख अनन्त
नश्वर है संसार की हर वस्तु
भ्रमित मोहित है हम सब किन्तु....
जल में कमल सम रहना सिखाते थे
जीवन के हर सत्य को सटीक वे बताते थे
अल्प भाषी थे
प्रकट में अल्प ही आहार वो खाते थे.....
गेरुआं वस्त्र में गुरुदेव चमचमाते थे
आलोकमय ललाट पर तिलक वे लगाते थे
जब जब वे सभा में आसन जमाते थे
लाखों नर नारी दर्शन उनके पाने चले आते थे...

देखा गया था :

भरी सभा में अछूतों से बचने का
उपक्रम वे निभाते थे
कीड़ों से भी बदतर
धनी मनुज पुत्रों को को
अग्रिम पंक्ति में वे बैठाते थे,
नारी को पूज्य कहते हुए भी
मूल पाप का कह जाते थे
कनखियों से पतों और जड़ों को
निहारते वे रह जाते थे ....
दूसरों के श्रद्धा और विश्वास का
मखौल वो उड़ाते थे
उतेजना भरे वक्तव्यों से लोगों को
आपस में वे लड़ाते थे...
उपदेश उनके होते थे
बस औरों के लिए
अपने लिए अलग ही सिक्के
वे ढलाते थे...
अपने भाई भतीजों भांजों को
इशारों से लाभ पहुंचाते थे
काम पटाने के एवज़ में
अपने न्यासों के नाम चेक वे मंगाते थे....
छपास( समाचारपत्र) दिखास (दूरदर्शन) की लालसा में
ना जाने कितने पतंग वे उड़ाते थे...
हीलर बन दूजों को सेहत देने वाले
हर वैद्य डाक्टर को खुद को दिखाते थे
जुखाम बुखार से घबराने वाले
लड़ना मौत से सिखाते थे ....
वेद शास्त्रों के गहरे निर्वचन
अन्धविश्वास में बदल जाते थे
नज़रों में उनके क्रोध लख
भक्तों के दिल दहल जाते थे......
बंद कमरों में दौरान गुप्त मंत्रणा के
अपनी परंपरा को वे भूल जाते थे
हर भौतिक सुख सुविधा का पाकर उपहार
ख़ुशी और घमंड से वे फूल जाते थे.......
करके दमन सहज भावों का
कुंठित वे हो जाते थे
घुमा फिरा कर बातों में
वर्जनाओं का जिक्र ले आते थे....
' कथनी करनी एक हो' के उदघोषक
थूक अपना निगल जाते थे,
झूठी प्रसंशा सुन कर अपनी
मोम से वे पिघल जाते थे....

याद आता है कहा किसी का :

घास पात जे खात है
उन्हें सताए काम,
जे हलुवा पूरी खात है
उनकी जाने राम........

(काम से यहाँ अर्थ कामनाओं से है जिसमें कुंठित सेक्स भी शुमार है)

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