Tuesday 29 July 2014

बौझ...

बौझ...

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बात करीब दो हज़ार बरस पहले की है. दुश्मनों ने यूनान के एक शहर पर फतह हासिल की और शहरियों को फरमान जारी किया कि वे तुरत शहर छोड़ दे. हाँ, नये बादशाह ने शहरियों को यह सहूलियत भी दी थी कि वे जो असबाब चाहें अपने साथ पीठ पर लाद कर ले जा सकते हैं.

शहर का करीब करीब ह़र इंसान अपने पीठ पर कुछ ना कुछ लादे हुए था और चेहरे पर भी मलाल का बौझ लिए जा रहा था.. उस समान के लिए जो बदकिस्मती से छूटे जा रहा था. रोते रोते सभी दूसरे शहर की जानिब काफिलों में बढे जा रहे थे. बौझ से सभी की कमरें झुकी जा रही थी. पांव लडखडाये जा रहे थे, मगर सभी ने अपने अपने कुव्वत और ताक़त के मुताबिक समान लादा हुआ था. समान ले जाने वाले दोनों तरफ से दुखी थे. जो छोड़ आये थे उसके खातिर रोये जा रहे थे और जो ले आये थे उस से दबे जा रहे थे.

पूरे काफिले में सिर्फ एक ही शख्स ऐसा था जिसके पास कोई भी माल-असबाब नहीं था. खाली हाथ बहुत सुकून और चैन के साथ चले जा रहा था. उसका नाम था फिलोसफ़र बायस.

भीड़ में भिखमंगे भी अपने अपने भारी गठ्ठर लादे हुए थे. बायस को देख कर एक औरत हमदर्दी में बोली, आहा कितना गरीब है बेचारा, इसके पास ले जाने को कुछ भी नहीं है. मिस्टिक बायस बोला, मैं तो अपना सारा का सारा सरमाया अपने साथ लिए जा रहा हूँ. मेहेरबानी करके मुझ पर रहम ना दिखाओ. रहम के काबिल तो तुम हो.

औरत चौंकी, बोली तुम गरीब भी हो और पागल भी.

बायस खिल खिला कर हंसने लगा और बोला : मेरी रूह की पाकीजगी ही मेरा सरमाया है..जिसे कोई भी दुश्मन छीन नहीं सकता., जो अलग नहीं हो सकती. जिस्म की दौलत तो बौझ देती है और रूह का सरमाया कोई भी बौझ नहीं देता.

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