Tuesday 29 July 2014

स्वीकार...

स्वीकार...

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जो भी विषय विकार है
मुझे समस्त स्वीकार है,
घृणा कि बातें क्यों होती
देह बिन सब बेकार है...

आदर्शों के बोझ तले
राई को पहाड़ बनाते हैं,
कृत्रिम पुतलों से मित्रों हम
महल अपना सजाते हैं..

आत्मा के सत्य को हमने
देह से दूर परिभाषा है,
अध्यात्म की एकांगी बातें
दमन-शमन की भाषा है..

हिंसा आक्रमण जो भी होता
दमन के प्रतिकार है
जो भी विषय विकार है
मुझे समस्त स्वीकार है...

(इस रचना में भी जो मूड हुआ लिख दिया, आगे कभी मन होगा तो और पंक्तियाँ जोड़ दूंगा..आप में से कोई इसे आगे बढा सकें तो कृतज्ञ रहूँगा.)


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