Wednesday 30 July 2014

रख कर बंसरी लबों पर .....

रख कर बंसरी लबों पर .....

ज़द्दो जेहद
जिंदगी की
दे देती है थकन
रख कर
बंसरी
लबों पर अपने
बन जाता है कोई
किशुन कन्हाई..

बहने लगते हैं
नग्मात के धारे,
चहक उठते हैं
जिस्म औ' ज़ेहन
थके हारे,
बहने लगती है
फिर से जिंदगानी
साथ लिए
हमसफ़र किनारे....

बजने लगता है
रूह में
राग अनहद का.
लगता है जैसे
फिजा अमन की है छाई..

ज़िंदगी मौसिकी का
सज़ीना है
कायनात भी तो
आगाज़ और
अंजाम का ही
करीना है
मांझी हों हम
मुक्कमल जीना
बहर -ए-हयात का
सफीना है

जिंदगी नाम चलने का
बहना है
उसकी फितरत
रुका जो भी
इस सफर में
उसको है मौत आई...

No comments:

Post a Comment