Tuesday, 29 July 2014

मुश्किल कहाँ !

मुश्किल कहाँ !

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ज़हर पीना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
ज़हर पचाना..

ना जाने कितने बन्दों ने
अपने हाथों पिया हलाहल,
और उडेला साकी ने भी
भर भर सागर खूब छलाछल,

कम ही होते
हलक़ बावरे ,
जाने समझे जो
गरल छिपाना..

कितने शख्स गिनोगे
जिनके साथ थे छूटे, ख्वाब भी टूटे,
राह जो भूले चलते चलते
पंख आसमां में थे टूटे

पीर सहना,
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
पीर भुलाना...

अश्क होते हैं गवाह दर्द के
यह तसव्वुर हुआ पुराना,
आबे-हयात कर ,पीना उनको
ज़ज्बा है यह नया सुहाना,

प्रेम करना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
'प्रेम ही ' हो जाना ...

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