मुश्किल कहाँ !
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ज़हर पीना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
ज़हर पचाना..
ना जाने कितने बन्दों ने
अपने हाथों पिया हलाहल,
और उडेला साकी ने भी
भर भर सागर खूब छलाछल,
कम ही होते
हलक़ बावरे ,
जाने समझे जो
गरल छिपाना..
कितने शख्स गिनोगे
जिनके साथ थे छूटे, ख्वाब भी टूटे,
राह जो भूले चलते चलते
पंख आसमां में थे टूटे
पीर सहना,
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
पीर भुलाना...
अश्क होते हैं गवाह दर्द के
यह तसव्वुर हुआ पुराना,
आबे-हयात कर ,पीना उनको
ज़ज्बा है यह नया सुहाना,
प्रेम करना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
'प्रेम ही ' हो जाना ...
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