आभास...
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देखो ना
विद्रोही कोलाहल
होकर प्रतिकूल
मचा देता है
हलचल
सन्नाटे के
शांत
साम्राज्य में,
किन्तु
दूसरे ही पल
हो कर
अनुकूल
समा जाता है
उसी
सन्नाटे के
गहनतम तल में,
यह नहीं है
आत्महत्या
कोलाहल की,
ना ही हनन
उसकी
अस्मिता का,
यह तो है
बस
आभास
एक दूजे में
एक दूजे के
होने का,
अनुभूति एक
सत्व की,
प्रतीति
समग्र सत्य की..
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