Wednesday, 30 July 2014

बस तुम हो.....

बस तुम हो.....

(यह आशु रचना भी पच्चीस साल या कुछ ज्यादा पहले की है, थोड़े संशोधन के साथ आप से शेयर कर रहा हूँ, भाव है बस..शब्द व्यंजन अत्यंत सहज है.)
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झाँकों ना
आँखों में मेरी
जो तस्वीर है,
बस तुम हो....

सूंघो ना
साँसों को मेरी ,
जो खुशबू है ,
बस तुम हो....

गाओ ना
गज़लों को मेरी
जो असआर हैं,
बस तुम हो....

जी लो ना
ज़िन्दगी को मेरी
जो रवानी है ,
बस तुम हो....

छुओ ना
धड़कन को मेरी
जो जुम्बिश है ,
बस तुम हो...

देखों ना
मेरी बाहों में
बंधी है जो ,
बस तुम हो...

करो ना एहसास
कुव्वत का मेरी
जो ताक़त है ,
बस तुम हो ....

सुनो ना
बातों को मेरी
जो अलफ़ाज़ हैं ,
बस तुम हो....

मिलो ना
ख़्वाबों से मेरे
जो हक़ीक़त है ,
बस तुम हो...

जानो ना
सोचों में मेरे
जो वज़ाहत है,
बस तुम हो....

ढूंढों ना
वजूद में मेरे
जो 'होना' है ,
बस तुम हो...
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मायने
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जुम्बिश-कम्पन,कुव्वत-हौसला, वज़ाहत- स्पष्टता

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