Wednesday, 30 July 2014

बावरे !

बावरे !

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धोखे है 
तेरी नज़रों के 
क्षितिज के 
इतने छोर,
लौट चला आ
राही पगले
अब तो 
खुद की ओर,

क्या तारेंगे 
सूरज चंदा 
बंधे काल के हाथ,
तेरे दीपक से 
ही होना
तेरा सकल प्रभात,
माने गैरों को 
क्यूँ अपना 
तेरे मन का  
चोर...

अंतर 
अनहद नाद 
समाया
वहीँ तो 
निज आलय को 
पाया 
बाहर में 
कोलाहल भीषण 
कैसा है 
यह शोर...

मिलन 
स्वयं से 
यदि करना है,
तन्द्रा से 
तुझको  
जगना है,
कर ऐसा 
कुछ जतन
बावरे !
जागृत हो 
हर पोर ...

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