Tuesday 29 July 2014

संस्कृत साहित्य में मैत्री

संस्कृत साहित्य में मैत्री

महक की 'मैत्र शीर्षक कविता ने प्रेरित किया है इस संकलन को आप मित्रों से शेयर करने के लिए. बहुत प्रसन्नता अनुभव कर रह हूँ.

परम पवित्र शब्द है मित्र जिसका समरण कर मन सुख से सरस हो उठता है और एक नया सम्बल मिलता है. सखा, सुहृद, संगी, साथी, हित हितैषी आदि इसके पर्याय है, मित्र के अनेक गुण दोष गिनाये गए हैं, इसके जागतिक और पारमार्थिक अंतर भी है.

'मि' क्रिया से क्त्र प्रत्यय लगा कर मित्र शब्द बना है, जिसकी हमारे संस्कृत साहित्य में नान प्रकार की व्याख्याएं की गयी है. इस प्रस्तुति में शनै शनै आपके समक्ष ये व्याख्याएं अथवा कथन उपकथन आयेंगे, आशा है आपके मन को मुदित करेंगे एवं मैत्री भावना को और प्रबल करेंगे.

१. मिनोति मानं करोति--जो आदर करता है वह मित्र है.
मिद्यती स्निह्यति इति मित्र: -- जो स्नेह करता है वह मित्र है.
मितं रिक्तं पूरयति इति मित्र: -- जो कमी पूरी करता है वह मित्र है.

२.तें धन्यास्ते विवेकज्ञास्ते सभ्या इह भूतले,
आगच्छन्ति गृहे येषां कार्यरत सुहृदो जना: .

इस धरती पर वे ही धन्य है, वे ही विवेकी है और वे ही सभ्य है जिनके यहाँ कार्य में शामिल होने के लिए मित्रगण आया करते हैं.
३. किं चन्दनै सकर्पूरैस्तूहिनै: किंच शीतलै,
सर्वे ते मित्रगात्रस्य कलां नाहरन्ति षोडशीम.

चन्दन, कपूर और बर्फ आदि शीतल पदार्थों की कौन स़ी गणना है, वे सब मित्र के स्पर्श की शीतलता के सोलहवें अंश के भी समान नहीं है.

४. आपन्नाशाय,विबुधे कर्त्तव्या: सुहृदोsमला:,
न तरत्यापदं कश्चीद्योSत्र मित्र विवर्जित: .

बुद्धिमानों को चाहिए कि वे संकटकाल के लिए उत्तम मित्र बनावें. इस संसार में कोई मित्र बिना संकट से पार नहीं हो सकता.

५. अपि सम्पूर्णतायुक्तै कर्तव्या: सुहृद बुधे,
नदीश: परिपूर्णोsपि चन्द्रोदमपेक्षते.

ह़र तरह से पूरे होते हुए भी बुद्धिमानों को चाहिए की वे मित्र बनाएं. निज में परिपूर्ण होते हुए भी समुद्र चंद्रमा के उदय होने की अपेक्षा करता है.

( क्रम संख्या २ से ५ के सूत्र विष्णु शर्मा कृत 'पंचतंत्र' से लिए हैं.)
उत्तम मित्र के लक्षण (भरथरी के अनुसार)##########
"पापान्निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं च गूहति गुणानप्रकटी करोति !
आपदगतं च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः !!"

*मित्र अपने मित्र को पाप कार्यों से विरत करता है.

*उसे हित के कार्यों में लगाता है.

*उसकी छिपाने योग्य बातों को छिपाता है.

*अपने मित्र के गुणों का बखान करता है

*संकट के समय मित्र का साथ नहीं छोड़ता.

*अवसर आने पर मित्र को यथोचित सहयोग 'देता' है.
विदुर जी कहते हैं :ययोश्चितेन वा चित्तं निभ्रतं निभ्रतेन वा !
समेति प्रज्ञया प्रज्ञा तयोमैत्री न जियरति !!

जिन दो मनुष्यों का चित्त से चित्त, गुप्त से गुप्त और बुद्धि से बुद्धि का मेल खाता है उनकी मैत्री कभी पुरानी नहीं पड़ती.

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