Monday, 28 July 2014

सुरक्षा या साथ... (दीवानी सीरीज)

स्वांत: सुखाय 
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सुरक्षा या साथ... (दीवानी सीरीज)

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लोजिक विषय में आते हैं :deductive and inductive logic. Deductive में 'general' to 'particular' होता है और inductive में 'particular' to 'general' apply करते हैं. .एक दफा एक तर्क शास्त्री कुछ ज्यादा ही तार्किक थे, inference draw कर बैठे , मुल्ला नसरुद्दीन के भी दाढ़ी है और बकरे के भी दाढ़ी है इसलिए हर बकरा मुल्ला नसरुद्दीन है.इन्हें तर्क शास्त्री कहें, पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यक्ति कहें, नादान कहें, अनजान कहें या.....

मगर ऐसा होता है जाने या अनजाने मुझ से भी.... मेरी हमदम दीवानी से भी.

वह भी एक फेज था,,,,

सुरक्षा... (दीवानी की कविता)

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गुलमोहर का
फलों से लदा वृक्ष
पत्ती एक नहीं
केवल टहनियां.

जाना मैने
बिना पत्तों के भी
फूल सुरक्षित रहतें हैं.

हाँ,
वे अपनी सुरक्षा करना
स्वयं जानते हैं,,,,

(Adaption of a poem of Vidya Bhandari ji with Thanx n Regards)

साथ... ('वि'  की रचना)

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ऊपर जो कुछ लोजिक या तर्क शस्त्र की बातें लिखी है वे आज आप से शेयर कर रहा हूँ, उसको कैसे कहता ये सब, कहीं उसके मन को ठेस लग जाती. परन्तु सहयोग भी करना था ताकि एकांगी सोच को वह संतुलन दे सके.

समन्वय और संतुलन... (V)

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समन्वय और संतुलन है 
प्रकृति की हर बात में,,,,

गुलमोहर जैसे होतें हैं
पेड़ कितने
जिनमें फूल खिले रहतें है
बिना पत्तियों के भी,
रक्षा और सुरक्षा की बातें
बनायीं हुई है समाज की सदियों से,
देते है कांटे सौन्दर्य फूलों को
आंतरिक साथ सुमनों को,,,,

तुम्हारा संकेत
यदि नर नारी साथ से है,
मेरी मित्र !
आज इस युग में
हो गई है बेमानी बातें सुरक्षा की
एक जमाना था वह 
होता था शिकार मर्द के बहु बल से,
होती थी खेतियाँ भी पुरुष शक्ति के नेतृत्व में,
हुआ आविष्कार जब से पहिये का
ले लिया था स्थान यंत्रिक शक्ति ने जगह बाहु-बल का
और
मर्द बेचारा हो गया था
एक फालतू स़ी चीज़ इस सन्दर्भ में....

आज करो तुम बातें साथ की,
एक दूजे के पूरक होने की,
एक सम्पूर्ण सौंदर्य की,
जिसमें पुरुष और प्रकृति दोनों हो भागीदार.
कोई हल नहीं है अकेला होकर रहना
साथ रह कर रखना जारी क्रम 
सृजन और  सौहार्द का
है सत्व नर-नारी संबंधों का ;
ना नारी को लाचारी में होना है 
निर्भर नर पर
और ना ही जीना है नर को संसार में 
एक बेजरूरत चीज बन कर,,,,

नहीं है कम कोई भी किसी से
दी है भिन्नता प्रकृति ने दोनो को 
यह अंतर ही सुंदरता है  इस महान सृष्टि की
एक खिली हुई रौनक है दृष्टि की
आवश्यकता है हमें  जोड़ने की ना कि तोड़ने की,
ना ही एक हिंसक होड़ की
जिसके नतीजे बना देंगे कमज़ोर
इन्सानियत को तहज़ीब को...अध्यात्म को,,,

बहुत ही सुंदर है गुलमोहर 
विलक्षण भी,
किन्तु भरा है उद्यान
बहुतेरे रंग बिरंगे वृक्षों और पोधों से
जिन पर पत्तियां भी है...फूल भी,
लिपटी है लताएँ पेड़ों से
गुंज रहे हैं भंवरे
कर रहे हैं कलरव पखेरू
बस इस उत्सव को
प्रिये ! जरा देखलो मन की आँखों से,
कर लो ना  आत्मसात इसको,,,,

सुरक्षा चाहिए उसे जिन्हें डर हो
यहाँ तो गुंजरित है गीत,
भय-मिश्रित चिल्लाहटें नहीं,
आनन्द है चहुँ ओर,
निर्मल आनन्द,,,
निर्मल आनन्द,,,

एक बात और...

पहिये के अविष्कार ने यांत्रिक शक्ति को जन्म दिया, बाहुबल की आवश्यकता पर प्रश्न चिन्ह लग गए...(आज तो विज्ञान ने इतना विकास कर लिया है कि गर्भाधान तक के लिए पुरुष का साथ स्त्री को अपरिहार्य नहीं.)

कालांतर में पुरुष-प्रधान समाज ने क्या क्या षड्यंत्र अपने तथाकथित 'बर्चस्व' को कायम रखने के लिए किये, और प्रतिक्रिया-स्वरुप 'नारी-मुक्ति; आन्दोलन का आग़ाज़ हुआ .....जो घटनाक्रम के अनुसार एक नैसर्गिक घटना थी, लेकिन वह भी समस्या का हल नहीं था /है....नारी ने पुरुष की 'duplicate copy' बन कर अपनी मौलिकता से हाथ धोना शुरू कर दिया है और मानवता वंचित होने लगी है उन सुकोमल भावनात्मक 'इनपुट्स' से जो कि उसके खिलने के लिए अत्यावश्यक है.बहुत स़ी बातें हैं...बहुत से मसले है....बहुत से विचार-विमर्श है....सहमतियाँ और असहमतियां भी है...मगर हर रचना की अपनी सीमायें होती है...इसलिए फ़िलहाल इतना ही.

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