Tuesday, 29 July 2014

चुगे अंगार चकोरी ने थे

चुगे अंगार चकोरी ने थे

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चुगे अंगार
चकोरी ने थे
चाँद कहाँ फिर
सो पाया था,
रातों गाती रही थी
बुलबुल,
व्यथित गुलाब कहाँ
सो पाया था...

खिन्न दिशाओं ने
पलकें झपकी थी,
क्षितिज आँगन
चुभती चुप्पी थी,
उषा आई थी
सज कर दर पे,
सूरज कहाँ
मुस्का पाया था...

सुस्त हो गए थे
सब तारे,
अश्रुपूरित
नयन तुषार के,
पवन सुगंध
चर्चे करते थे
मिलन-विरह
निर्मम प्रहार के,
लहरों की लोरी को
सुनकर
कहाँ सरोवर
सो पाया था...

सतरंगी
धनुष घट
फूट गया था,
पनिहारन का भ्रम
टूट गया था,
झांझर की मीठी
झम झम में
मन तट का कहाँ
खो पाया था...

सोते पीड़ा के
बहे चले थे,
चमन दर्द के
खूब फले थे,
यादें आती रही
रात भर,
रिसता ज़ख्म कहाँ
सो पाया था...

कसमें वादे
खूब हुए थे,
अरमां से
मंसूब हुए थे,
कंधा हाज़िर रहा
मगर,
यह नाज़ुक दिल कहाँ
रो पाया था..

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