Monday 4 August 2014

कंधों का सहारा...(अंकित जी )

कंधों का सहारा...(अंकित जी )
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जिंदगी की 
आपाधापी में
दौड़ते चलते थे वे 
बिना रुके
बिना थके 
बिना विराम 
और  विश्राम के;
अकेले 
उनको ही 
ढ़ोना था 
बोझा जिंदगी का.

थक  गये थे जब
होकर शक्तिविहीन 
तो चलने लगे थे 
रेंग रेंग कर
रुक रुक कर
विराम और विश्राम के लिए नहीं 
अपितु 
मज़बूरी में.

दोनो ही हालत में थे
अशांत
व्यतीत
तनावग्रस्त
असुरक्षित.

मगर देखो आज
चले जा रहे हैं
शांत और पुरसुकून
होकर सब चिंताओं से मुक्त;
बिल्कुल बेपरवाह…

मिला हैं उन्हे 
कंधों का जो सहारा
कहीं चलने के लिए
पहिली और आखरी बार

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