Friday, 1 August 2014

किनारा...(मेहर)

किनारा...
#########
सुनो !
खोने पाने के 
ढंग 
होते है ना
अलग अलग से
तुम्हारी ही बात 
सब 'सापेक्ष' हैं..

देखो ना 
पा लिया है 
मैंने 
सब कुछ 
तेरी नज़र का,
बिखरी हूँ जो 
बनकर शूल 
तेरी राह में....

देखो ना
पा लिए  है 
मैंने 
खुद पर 
तेरे कदमों के निशां,
बिछी हूँ जो 
बन कर धूल 
तेरी राह में..

देखो ना 
पा ली है मैंने 
जगह
तेरे दिल-ओ-जेहन में,
रहती हूँ जो 
बन कर भूल
तेरी आह में..

सुनो !
ना देना मुझको
जवानी दरिया की
या के 
रवानी मौजों की,
बना लेना
बस  मुझको 
यक किनारा 
डगमगाए 
जब भी कश्ती
किसी की भी 
सूनी चाह में..

No comments:

Post a Comment