Friday, 1 August 2014

तुम ऐसे ही तो हो...(मेहर)

तुम ऐसे ही तो हो...
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सुनो !
उस मोड पर
मेरे जिस्म ने 
अपनी रूह को
तुम्हारे संग छोड़
तूफानी समंदर में 
छलांग लगा ली थी,
मौजों के थपेड़े 
कभी ऊपर
कभी नीचे 
कभी दायें 
कभी बायें
फेंके जा रहे थे
उसको, 
तुम और मेरी रूह 
साहिल पर खड़े 
देखे जा रहे थे
उस तमाशे को,
ना जाने क्यों हुआ 
कैसे हुआ
उस बेजान बेरूह जिस्म को
मिल गया है आज 
एक जज़ीरा 
जहाँ मीलों फैला है 
एक रेगिस्तान 
तपती धूल
गरम हवाएं 
नामो निशाँ नहीं हरियाली का 
ऐसे में 
देख रहा है जिस्म 
दूर खड़े तुम को
और 
अपनी रूह को भी,
तय किया है 
एक जोखिम और लूंगी 
कूद पडूँगी 
फिर से 
इस चीखते चिंघाड़ते 
समंदर में 
शायद इसकी 
दीवानी लहरें 
पहुंचा दे मुझे 
फिर से 
तुम्हारे पास 
अपनी रूह के पास,
या 
कूद पडो तुम भी 
मुझे बचाने 
या 
खुद को मेरे साथ डुबोने,
सुनो !
मैं जानती हूँ तुम को
तुम ऐसे ही तो हो...

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