उन्माद या पहचान
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अनछुई ताज़ा
महकी सी हवा
उठती है
कभी कभी
मेरे अंतर में,
हिला देती है
झकझोर देती है
दुनियावी आवरणों को
हटा देती है
मन पर जमे
कृत्रिमता के मेल को
दिखता है
उजले दर्पण में
मेरा अपना बिंब
जिसे उम्रों
ढूंढ रहा था मैं
पराए नयनो में.
जिन्हे मैं
यौवन मद में
उन्मादित
वासनाएँ या कि
अंतर की सुर्पणखांयें
समझ रहा था
वो तो थी
ग़लत-फेहमियाँ
परम्पराओं से दबी
मेरी कायर मानसिकता की
या थी वे
औरों के मुँह से निकली
ईर्ष्या भरी कटूक्तियां
उन कच्ची सच्ची
भावनाओं के खिलाफ
जिनको यह भीड़
हकीकत मानते हुए भी
झुठला देती है-
बर्दाशत
नहीं कर पाती है.
मैं खुश हूँ
बहुत खुश
पा रहा हूँ खुद को
हल्का-हल्का सा (क्योंकि)
देख पाया हूँ
आज पहली बार
ठीक से खुद को
खुद के ही
दर्पण में
यह कोई उन्माद नहीं
कोई कुंठा नहीं
कोई पाप नहीं
यह तो
मेरी खोई हुई पहचान है...
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