बात एक राज़ की...
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सुनो !
कहनी है आज
बात एक राज़ की,
हो सकता है
वह ना हो कोई राज
तुम्हारे लिए...
मेरे उत्साहित
सहमति के स्वरों में
समझ और स्वीकृति का नहीं
समावेश था
तुम्हे पाने और अधीन करने की
उत्कट वांछा का...
किया था
अनुमोदन मैंने
तुम्हारी हर सोच और कृत्य का
पा सकूँ ताकि
तुम्हारा भी अनुमोदन
किसी नाज़ुक पल में
अपनी सोचों और कृत्यों के लिए ...
छला था
तुम्हारी सहजता को
मेरी वक्रता ने,
लगा था मुझे
जीत गया है मेरी
संकीर्णता का
अनुत्तरदायी फैलाव
तुम्हारी उत्तरदायी
विशालता की गहनता से...
मेरे अर्थों को
बनाना चाहा था
पर्याय मैंने
तुम्हारे शब्दों के
करते हुए विस्मृत कि
सम की प्रतीति का
छलावा
खोखला है कितना ?
तेरा शब्द्विहीन
जीए जाना
करा रहा है मुझे अनुभूति
मेरे ही
अहमजनित अज्ञान की
जो होता गया था हावी
उस अनाम सम्बन्ध पर
समाहित था जिसमें
सर्वांगीण विकास मेरा...
हो गयी हूँ मैं
दूर आज
तुम से
किन्तु पा रही हूँ
सन्निकट स्वयं को
तुम्हारे प्रेम विवेक और
औदार्य के,
काश समझ पाती मैं
तुम को
उन कोमल क्षणों में....
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