निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय....
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हुआ करते हैं हम
जब साथ साथ अपने
संग अनुभव होता हर कोई
जागृत हैं खुली आँखों से
या देखते हैं सपने,
दुराव स्वयं से स्वयं का
करता है दूर सब को
भविष्य से होकर बौझिल
तोड़ देता विगत 'अब' को....
छाया है हर्ष चहुँ दिशि
मिल रहा सुख अपार है
तन मन पुलकित अपना
आनंदित निखिल संसार है,
पा रहा है मानव
सामीप्य स्व के रंग से
बिंबित है समत्व
अंतरंग और बहिरंग से,
प्रत्युत्तर इन्हीं स्पंदनों का
मिल जाता साँझ सवेरे
सहभागिता,सम अनुभूति, स्वार्थ
कारण इसके बहुतेरे,
नहीं सकेगा नकार कोई
तथ्यजनित प्रतीकात्मकता को
प्रत्यक्ष करे आकर्षित
सकारात्मकता सकारात्मकता को.....
छाये है घन दुखों के
गरजे विद्युत विपदाओं की
बरस रही है झड़ी अनवरत
कष्ट और आपदाओं की,
घिरा है मनोमस्तिष्क
नकारात्मकता की धुँध से
ग्रसित है अस्तित्व
दुर्बलता संवेदन अतिकुन्द से,
बढ़ रहा है अंतर अपना
स्वयं ही के अंग प्रत्यंग में
घटित है विखंडन
अंतरंग और बहिरंग में,
भाग रहे हैं स्वयं हम
दूर दूर स्वयं से
नहीं होता अनुभूत किंचित
समीप स्व हृदय के,
नकारतमकता लगी सताने
कंपनों में पल पनप कर
डुबो रहा है कोई मानो
अश्रु में छलक छलक कर,
देखने लगता है मनुज
हर वस्तु एनक चढ़ा कर
निकट आता है क्यों ना कोई
हाथ अपना बढ़ा बढ़ा कर,
दुखड़े हमारे अपने
उठाने हैं हंस कर रो कर
क्यों देखें हम औरों को
लाचार याचक हो कर,
क्यों ना निज मन की व्यथा
मन ही राखो गोय
सुख में हैं सब साथी
दुःख में ना होता कोय....
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