थीम सृजन : वन उपवन में छाया बसंत
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सपने का फूल बसंत का,,,,
#############
ऐ मेरे दोस्त
पतझड़ के सूखे पत्ते !
आओ ना कर लें
कुछ और दिल मन की बातें,,,,
माना कि
तुम्हारे अनायास साथी
पतझड़ के फूलों की पंखुड़िया
किरमची सी हुई
मानो दिखाती है बार बार
अक्स अपना मौत जैसा,
रोने लगती है ना मिट्टी
गिरने से उनके और
संग उनके तुम्हारे भी,
नतीजन ना जाने क्यों
मुरझा जाते हो फिर तुम
पतझड़ के गुलाबों की तरह,,,,
मत भूलो
महत्वपूर्ण यह है कि
बने रहते हुए ही ख़ुद के लिए
बदल सकते हैं हम ख़ुद को
अपने और दूसरों के भले के लिए
हो सकते है हम आलोक सब का
बन कर सपने का फूल बसंत का,,,,,,
हो जाओ ना मेरे यार तुम
सूरजमुखी की पंखुड़ियों जैसे
जो वक़्त आने पर छोड़ देती है सब कुछ
अगली पीढ़ी के लिए
या सिंहपर्णी फूल की तरह
जो मिटा कर ख़ुद को
बिखेर देता है बीज अपना
नई पौध होने के लिए,
रहोगे ना तुम तब भी
किसी ना किसी रूप और स्वरूप में,,,,
चलो छोड़ो ये सब,
और धुँधले से अंधेरे में
करो ना एक मस्त नाच संग में मेरे
यारां, कुछ भी तो नहीं रहा है
होने को ग़मज़दा अब,
समझ गए होंगे अब तक
कि विदा हुए हर एक चेहरे की
होती है अंतिम निष्पति
बस भुला दिया जाना,,,,,,
कह ही डालते हैं बेझिझक
आज अपनी बात एक दूजे को
बिखर कर
नील निरभ्र नभ में
गाते हुए कई गीत
और कर लेते हैं एक नयी शुरुआत बसंत की ...
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सपने का फूल बसंत का,,,,
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ऐ मेरे दोस्त
पतझड़ के सूखे पत्ते !
आओ ना कर लें
कुछ और दिल मन की बातें,,,,
माना कि
तुम्हारे अनायास साथी
पतझड़ के फूलों की पंखुड़िया
किरमची सी हुई
मानो दिखाती है बार बार
अक्स अपना मौत जैसा,
रोने लगती है ना मिट्टी
गिरने से उनके और
संग उनके तुम्हारे भी,
नतीजन ना जाने क्यों
मुरझा जाते हो फिर तुम
पतझड़ के गुलाबों की तरह,,,,
मत भूलो
महत्वपूर्ण यह है कि
बने रहते हुए ही ख़ुद के लिए
बदल सकते हैं हम ख़ुद को
अपने और दूसरों के भले के लिए
हो सकते है हम आलोक सब का
बन कर सपने का फूल बसंत का,,,,,,
हो जाओ ना मेरे यार तुम
सूरजमुखी की पंखुड़ियों जैसे
जो वक़्त आने पर छोड़ देती है सब कुछ
अगली पीढ़ी के लिए
या सिंहपर्णी फूल की तरह
जो मिटा कर ख़ुद को
बिखेर देता है बीज अपना
नई पौध होने के लिए,
रहोगे ना तुम तब भी
किसी ना किसी रूप और स्वरूप में,,,,
चलो छोड़ो ये सब,
और धुँधले से अंधेरे में
करो ना एक मस्त नाच संग में मेरे
यारां, कुछ भी तो नहीं रहा है
होने को ग़मज़दा अब,
समझ गए होंगे अब तक
कि विदा हुए हर एक चेहरे की
होती है अंतिम निष्पति
बस भुला दिया जाना,,,,,,
कह ही डालते हैं बेझिझक
आज अपनी बात एक दूजे को
बिखर कर
नील निरभ्र नभ में
गाते हुए कई गीत
और कर लेते हैं एक नयी शुरुआत बसंत की ...
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