Friday 11 May 2018

करणीय : विजया


करणीय...
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क्या वांछाएँ अपराध है
सज़ा उसकी क्या ज़िंदगी
अपराध बोध लिए हुए
कैसे जीये हम ज़िंदगी...

ए ज़िंदगी सुन ले जरा
मुझको तो जीना है तुझे
वांछाओं से होकर विमुक्त
कैसे जीऊं मैं ज़िंदगी...

साक्षी बन कर साँस ले
उल्लास अपनाले अरे
थम जाना ही मौत है
और चलना है ज़िंदगी...

दीशाहीन हो जो चला
भटका या अटका था वही
ले क़ुतुबनुमा स्वविवेक का
यात्रा बनाना ज़िंदगी...

भरपूर जीये एक जीवन में
तृष्णाओं को स्थान कहाँ
तन तो केवल साधन है
अपनी आत्मा है  ज़िंदगी...

रो रो कर ना नयन गवाँ
आँसू ना बने हैं साँस कभी
नाभिमंडल का हास्य नाद
बन पाये केवल ज़िंदगी...

किस ने कहा किसने सुना
परवाह ना कर मित्र तुम
करता रह जो करणीय
यही जीना है ज़िंदगी...


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