Tuesday 30 June 2015

छोह और बिछोह : विजया

छोह और बिछोह
+ + + + +
शब्दों और इंसानों में 
कभी कभी
महसूस होता है
समानता
असमानता
निर्भरता
और पूरकता का
रिश्ता
प्रथम दृष्टि में,
किन्तु हटकर
थोडा सा
देखते हैं
सोचते हैं
जांचते हैं तो
चौंक जाते हैं
जो कुछ आ जाता है सामने...
छोह और बिछोह
है क्या
विलोम
एक दूजे के
अथवा है पूरक
अथवा है लाक्षणिक
घुमड़ने लगे हैं
प्रश्न मष्तिष्क में.
छोह में क्या आवश्यक है
मिलन या बिछोह
और गूंजते है कानों में
ये मिसरे
हर मुलाक़ात का अंजाम
जुदाई क्यों है ?
या
जब भी यह मन उदास होता है
जाने कौन आसपास होता है ?
या
हम तुम से जुदा होके
मर जायेंगे रो रो के,
या
मैं तो कब से खड़ी इस द्वार
कि अँखियाँ थक गयी पंथ निहार,
या
याद आ रही है तेरी याद आ रही है
या
हम तुम युग युग से ये गीत मिलन के,
गाते रहे हैं, गाते रहेंगे,
और भी बहुतेरे....
प्रेम के साथ
जुड़ गए हैं मिलन और जुदाई
इस कदर कि
सोचा भी नहीं जाता कि
हो सकती है कोई मोहब्बत
वस्ल-ओ-हिज़्र के बिना,
छोह को
प्रेम को
दया को
कृपा को
जोड़ा जाता है
बस मिलन से ही
और समझ लिया जाता है
बिछोह को विलोम इसका,
अजीब है ना
शब्दों कि दुनिया भी
हम इंसानों की दुनिया की तरह.

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