Tuesday, 30 June 2015

खुदा भी खुदगर्ज़ है... विजया

खुदा भी खुदगर्ज़ है...
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चारागर रुक जा ये एक लाइलाज मर्ज़ है
इंसां की क्या कहें खुदा भी खुदगर्ज़ है,
रवायतों को निबाहते रहो उसूलों की तरह
माशरे का बनाया कैसा अजीब फ़र्ज़ है.
तंज के तीर खाओ मुस्कुराते भी रहो
कैसी यह तिजारत कैसा यह क़र्ज़ है.
चस्पाँ हो तुम माजी की मरी यादों में
जेहन के सफों में कब से जो दर्ज है.
कल की फ़िक्र में बिगडा है आज कैसा
सोचे ना मुस्तक्बिल को तो क्या हर्ज़ है.
अपने तुज़ुर्बों को समझ ना आखरी तू
है ज़िन्दगी कुछ और भी ये मेरी अर्ज है.
तरन्नुम में गाये जा ऐ मनमौजी तू
नग्मे के बोल भी तेरे तेरी ही ये तर्ज़ हैं.

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