Friday 26 June 2015

शब्द्नामा

शब्द्नामा
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(हमारे आशु कविता ग्रुप में मुझे "यौन" शब्द पर लिखना था और इस कविता के सृजन के प्रोसेस में मुझे अपने द्वारा चुनी हुई शालीनता के दायरे में भी रहना था, मेरे सुधि पाठक गण कृपया मुझे बताएं की प्रयास कैसा रहा. रचनातमक आलोचनाओं का स्वागत है.)
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पूछा था उस दिन 
हमने
शब्दों से
क्यों बना देते हो तुम
सीमित इतना
असीम से अर्थों को,
थोड़ी सी उदासी
थोड़ी सी नाराज़गी के संग
कहा था शब्दों ने
हम तो साधन है
तुम्ही ने तो
बना दिया है
साध्य हमको
करने को सिद्ध
अपने आग्रहों और पूर्वाग्रहों को
अपने अहम् और भ्रम को,
माना कि
होते हैं अर्थ अनेक हमारे
कुछ कहे भी
कुछ अनकहे भी
जाती है दूर तलक
यह गली समझ की
लेकिन तुम तो
चलोगे ना वहीँ तक
जहाँ तक आये
सब कुछ
मुआफिक तुम को.....
बोले थे फिर यूँ
नटखट शब्द,
आते हो तभी तुम
करीब हमारे
जब होते हो तुम
ग़मज़दा
चोट खाए हुए
और छुअन हमारी
दे पाती है सुकूँ तुम को,
या चले आते हो
नज़दीक हमारे
जब करना हो कोई
स्वार्थ साधन
आदर्शों की आड़ में
चलाने सिक्के अपनी
बुद्धि के
मेधा और दिल की
अनमोल दौलत को
भूलाकर,
कभी बनाते हो
दोस्त हमको
और कभी दुश्मन,
कभी कभी तो
करते हो हम से
जान बूझकर
बर्ताव ऐसा
मानो हम हो
अजनबी कोई...
बोल उठा था तब
एक आवारा सा शब्द
आगे आकर
कहाँ फंस गए हो तुम आज
जो किये रहे हो
इतनी बातें
अन्तरंग हम से,
बन कर बैसाखी
चलाया है तुम को हमने
यूग युगान्तरों से
तत्पर हैं हम
आज भी
करने को मदद तुम्हारी,
कह दो ना निस्संकोच
कहाँ अटके हो ?
अपने अर्थों के सघन वन में
कहाँ भटके हो ?
खुलना होता है
यदि पाना हो
सटीक हल,
छोड़कर औढ़े हुए आवरण
और थोपी हुई लाज-शर्म...
पूछ बैठे थे हम
अरे यौन !
क्यों है इतना
हल्ला गुल्ला दुनिया में
तुम को लेकर ?
गंभीर होकर फुसफुसाया था
'यौन',
उपद्रव है सारा
पकडे हुए अर्थों को लेकर,
कर दिया है तुम ने तो
सीमित मुझ को
अंगों के खेल तक,
मैं तो हूँ
उदार और विस्तृत
लिए हुए अनेक अर्थ,
देह से परे
आत्मा के निकट
व्यवस्था से परे
आस्था के निकट,
विज्ञान से परे
कला के निकट,
अहम् से परे
प्रेम के निकट,
वासना से परे
प्रार्थना के निकट,
भौतिकता से परे
आध्यात्म के निकट,
चुनाव तुम्हारा है
सहज हो या विकट ?
फेंक कर
अबूझ से कई प्रश्न
हो गया था ओझल
यौन अपने आगार में
खो गए थे हम
फिर से
असमंजस के कगार में...

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