Tuesday, 14 December 2021

द्वि तनु एकात्म...


द्वि तनु एकात्म...

########

हुआ मम 

सघन निकुंज प्रवेश 

व्यग्र मिलनातुर 

छिपे तिमिर में कृष्ण 

स्वयं वांछातुर

प्रिया को खूब सताने

सत्व को सत्व जाने...


आकुल व्याकुल 

नयन ढूँढते 

निरंतर 

हुआ प्रकट 

श्याम सलौना 

तदनंतर 

मोहे अंग लगाने

सत्व को सत्व जाने...


संकोची मैं

लज्जामय कम्पित 

रक्तिम 

सुकोमल मधुर बेन 

उच्चार रहा है 

प्रीतम 

मोहे नाना विधि  रिझाने

सत्व को सत्व जाने...


खो गयी मैं

प्रियतम से 

अति-आश्वस्त 

सरका था 

दुकूल रेशमी होके 

मदमस्त 

जघन अनावृत सुहाने

सत्व को सत्व जाने...


किसलय शैय्या सुखद 

माधव उर 

उष्ण स्पर्श 

सहज समर्पित 

अलसाई मैं 

सहर्ष 

अधर रस अनुपाने

सत्व को सत्व जाने...


पलकें झुकी झुकी 

थकन मादक 

अनिर्वचन 

लालिम कपोल 

केशव के 

झन झन 

धुन मौन बजाने

सत्व को सत्व जाने...


कुहू कुहू सिसक 

कोकिल सम 

ध्वनित 

केश कुंतल 

वेणी कुसुम 

संदलित 

वक्ष कररुह लिखाने

सत्व को सत्व जाने...


आंदोलित अपरिमित 

घनश्याम 

मदनमय 

स्वेद सुवासित   

देह द्वय

निखिल विश्व सरसाने

सत्व को सत्व जाने...


मंथर ध्वनि नूपुर 

अनायास 

अति झंकृत 

रति सुख चरम 

द्वि तनु एकात्म 

सुसंस्कृत 

वेणी चुम्बन बरसाने

सत्व को सत्व जाने...


लता गात

पुरपेच शिथिल 

चरमोत्कर्षित

मोहना निर्बल 

आनंद उत्सव 

अतिहर्षित

राधा श्याम दोऊं मस्ताने

सत्व को सत्व जाने...


(मेरी यह स्वांत: सुखाय रचना बहुत सी तकनीकी और भाषा सम्बन्धी ख़ामियाँ लिए है, फ़्रैंक सुझावों का स्वागत है. इस सामान्य लीक से हटकर लिखने में मैने प्रेरणा ली है कालिदास, जयदेव और विद्यापति के लेखन से.)

नीले रंग से : विजया

 

(कितने सापेक्ष होते हैं निर्वचन !)


नीले रंग से....

+++++++

(१)


कलाकार था वो 

चाहती थी शिद्दत से 

उसकी केनवास होना 

भर देना 

उसके लिए 

मेरे दिल और दीमाग को

उल्लास के 

पीले, केशरिया, हरे रंगों से 

भर दिया था 

मुझे उसने तो 

कान्हा के 

नील रंग से....


(भारत में नीले रंग को अमरत्व, स्थिरता, सार्वभौमिक सत्य से जोड़ कर देखते हैं.)


~॰~॰~॰~


(२)


कलाकार था वो 

चाहती थी शिद्दत से 

उसकी केनवास होना 

भर देना 

उसके लिए 

मेरे दिल और दीमाग को

उल्लास के 

पीले, नारंगी, हरे रंगों से 

मगर भर दिया था 

मुझे उसने तो 

अवसाद के 

नील रंग से....


(नीले रंग को इंगलेंड में उदास भावों से, जर्मनी में अवसाद, चीन में भूत प्रेत और मौत, तुर्की में शोक से जोड़ कर देखते हैं.)

डिप्रेसन....

 पैंटिंग्स : सहज सृजन 

============

डिप्रेसन....

#####

मोड़ लिया है 

रुख़ अपना तूफ़ान ने 

गुजर गया है छूकर 

कमजोर पड़कर,

कटार की चमकती धार सी

बह रही है तेज हवाएँ अभी भी,

बारिश की भयंकर बौछार 

फिर अचानक मंद हो जाना,

लगातार टिप टिप की आवाज़ 

ज्यों अज़ाखाने  में 

बकरे के कटे सिर से टपकता 

लाल लाल खून,

अजीब सी हलचल 

अंदर बाहर लड़खड़ाहट 

उदासीनता में डूबा आलम 

ऊहापोह हताशा

उलझे उलझे सोच,

सूरज चाँद  गिरे हैं धड़ाम से 

लुढ़के और फिसल गए हैं 

गहरी खाई में,

कलम कर लिए हैं फूलों ने 

सिर अपने अपने,

नोचें हैं काली बिल्ली ने 

पंख कबूतर के 

लटक गयी है तड़फते तड़फते 

गर्दन उसकी,

डरावनी म्याऊँ म्याऊँ चीखती कातिल 

हो गयी है खुद भी हलाक 

ना जाने क्यों, 

ज़िंदा बची हूँ तो बस मैं,फ़क़त मैं 

और मैं....

नहीं चाहती अब और जीना...


(अज़ाखाना=कसाई खाना)

असली रंग....


बहुत दुखद होता है 

किसी के असली रंगों को 

बिगाड़ते हुए देखना 

उस तस्वीर को 

उन्होंने किसी घड़ी

आंका था जिसे खुद ही 

हमारे ज़ेहन के 

कोरे केनवास पर...

Friday, 23 July 2021

मेरे जीवन की स्त्रियाँ...

 थीम सृजन : स्त्री 


मेरे जीवन की स्त्रियाँ 

###########

अखिल ब्रह्मांड स्त्रेण और पुरुषेण गुणों का समन्वय, सम्मिलन या योग है. स्त्री उतनी ही महत्वपूर्ण जितना पुरुष...बल्कि स्त्री अधिक महत्वपूर्ण : स्त्री ब्रॉड्ली वह सब कुछ कर सकती है जो एक पुरुष कर सकता है लेकिन पुरुष बहुत कुछ वो नहीं कर सकता जो स्त्री कर सकती है. 😊

 'स्त्री' से मैं और मेरी कलम कुछ 'विशेष' रिलेट कर पाते हैं. आज खंडन-मंडन, तर्क-वितर्क से परे मैं अपने जीवन में नाना रूपों में आई कुछेक 'स्त्रियों' पर लिख रहा हूँ, जस का तस..सार संक्षेप के रूप में, बतौर सैम्पल....इस फ़ेज़ में जन्म से लेकर टीन ऐज में एंट्री से पहले तक को कवर कर रहा हूँ, वक़्त आने पर बाक़ी आगे का भी 😊😊


(१)

उसको देखा नहीं 

महसूस किया है 

जिस्म के हर हिस्से को 

छूने से एहसास है उसका 

नस नस में बहते खून में 

रवानी है उसकी 

फ़र्क़ नहीं है कोई 

अल्लाह, आद्या और उसमें....


(२)

अंकुर को बूटा बनाया 

उसके प्यार की सींचन ने 

धूप छाया खाद 

निराई गुड़ाई 

सब कुछ भी तो किया उसने,

रक्त सम्बन्धों और स्वार्थों से परे 

इंसानियत क्या होती है 

पाया उसके हर रूप में,

प्रेम, करुणा, विवेक के 

सारे सबक़ सीखे हैं उस से

उसके तसव्वुर की तस्वीर हूँ मैं

मेरे हर रंग में समायी है वो...

स्त्री : चंद सवाल - विजया


स्त्री : चंद सवाल 

+++++++++

पुरुष प्रधान व्यवस्था में 

स्त्री कहाँ कर पाई है साबित 

अपने होने को 

सदियों के संघर्षों के बाद भी ?


औढ कर अस्तित्व 

दोयम दर्जे का

पाल कर भ्रम 

बराबरी का 

कब तक जिये जाएगी स्त्री ?


लपेट कर आवरणों में 

लुभावनी सनदें भले ही दे दे 

सचमुच उसे 

उसके न्यायपूर्ण अधिकारों को 

क्या दे पाएगा पुरुष ?


ज़ाहिर है देह और मन का अंतर 

मर्द और औरत का 

लेकिन नहीं है यह अंतर 

कमतरी और बढ़तरी का,

कब स्वीकारेगा इस सच को 

यह झूठा समाज ?


भरम रजामन्दियों का 

ख़ामियाज़ा पाबंदियों का

क्यों उठाएगी 

इक्कीसवीं सदी की 

सक्षम और होशमंद स्त्री ?


मर्द को सब कुछ मुआफ़ 

औरत को सजा अनकिए गुनाह की

कब होगा निराकरण 

शताब्दियों की 

इस विसंगति का ?


आज़ादी के मायने 

कुछ और हैं मर्द के लिए 

बंधी हुई आज़ादी ही 

मयस्सर है औरत के लिए 

मिट पाएगा यह फ़र्क़ 

क्या कभी भी ?

अपनी दास्ताँ.....


अपनी दास्ताँ....

########

कभी कभी 

ऐसी भी कुछ बात होती है,

जिंदगी बीते वक्त से ज्यादा 

ना जाने क्यों, हसीन होती है...


पता नहीं राज क्या है 

बातें चंद अनकही होती गई 

गुजरते वक्त के साथ 

मेरी नब्ज सही होती गई....


मुहब्बत जो पुरानी थी, 

नई नवेली होती गई

ताज़गी का आलम ना पूछो 

हर पल मैं नई होती गई...


बेमानी थी गिनती उम्र की 

धड़कने दिल की जवाँ होती गई

क़िस्मत से तू मिला मुझ को ऐ साथी ! 

जमाने में दास्ताँ अपनी बयां होती गई...

सुर आठवाँ भी मगर...: विजया

 

सुर आठवां भी मगर...

++++++++++++


लिख डाला था 

मोहब्बत में 

एक दीवान मैं ने,

ऐसा गुरुर के

पढ़कर भी न पढ़ा 

तुमने एक भी हर्फ़ को...


नाकाम रहा 

साजे दिल से निकला 

संगीत मेरा,

पिघला ना सका 

पत्थर सी जमी 

दिल की बर्फ़ को...


सजाया था 

सातों सुरों से

बज्मे मोहब्बत को,

सुर आठवाँ भी मगर 

छू ना पाया 

प्यासे जर्फ़ को...


(विलंब के लिए क्षमा प्रार्थना)

सुर ओ ताल जुदा जुदा....

 पेंटिंग : सहज सृजन 

============

सुर ओ ताल जुदा जुदा....

#############

बिखरा बिखरा है सब कुछ 

जीवन अज़ाब हो चला है 

ना जाने ज़िंदगी में 

ये कैसा ज़हर पला है…


दोपहर हो चली अब 

सूरज फिर भी हल्का है 

हर शै में समाया ज्यों 

धुँधलका ही धुँधलका है…


जो बसाए थे गाँव हमने 

आज वहीं से जिलावतन है 

बाग़बाँ थे हम जहां के 

उजड़ गए वो चमन है…


रिश्तों में ठगे गए हम 

मोहब्बत के भी तो मारे हैं 

जमाने ने ठुकराया तो क्या 

खुद तो खुद के हम प्यारे है...


महफ़िल सजी धजी है 

साज़िंदे भी तो माहिर है 

सुर और ताल जुदा है सबके 

फ़क़त शोर ही बज़ाहिर है…


हैरां न हो ए साक़ी 

ग़र टूटे सभी पैमाने हैं 

चल दिए पावों पे मैकश 

मुबारक तुम्हें मैखाने है...

Wednesday, 30 June 2021

Known Unknown (Revised Hindi)

 


Prelude: 


1) The background of this poem is a deep rooted childhood love between a Hindu Rajput Prince and A Muslim Rajput princess. They separated, they met, they separated.


2) Some Arabian'Urdu/Hindi/Sanskrit words are used in this write which were provided by

some elder in my family, who is a great scholar.


3) Please feel the emotions of the princess and see.


~~~<<<<<<<~~~~~~~


Known Unknown....(With Hindi Version)

# # #

When I saw you again

On Time Square

You looked 

Different to me

In that energy oozing crowd !

With your rudraksh beads

Safron wrap

Shining forehead

Emitting rays of divinity,

Came an instant feel

I know you since ages,

Thought of saying you

Hello !

But you were nowhere,

You the Escapist !

You ran away again from me...


Onwards that moment

You became

My quest,

I searched for you

In four metros

At ghats of Benares

On Ganges banks of Rishikesh

Among Monks of Dharamshala

At the rock of Cape Comorin

At Shanti Niketan,

I also touched Pindi,Lahore and Karachi

I have been to Dhaka, Memansingh, Chitvan and Yangoon

No trace !

Resembled so many with you

But turned just replicas

They spoke in volumes

To prove they were you

But the magnet in my heart

Always disproved,


That day I saw you in 

The statesman

In a snap with firangs at Mansarovar

Again a vibrant divine man with difference,

And the report said 

You were last seen there,

You vanished....just vanished

Uttered your companions...


Now I am still

No wandering

Just in wait,

Till my last breath

I would look for you to come,

Will you come to

My funeral,

Listen

I wish to become a swan of mansarovar

To pair with you

I don't wish to let my remains

Continue on this earth

I cannot wait for the day of judgment,

Don't allow the imaam to say salat-l-janazah

Allow no one to take my breathless body to al-dafin

Don't lay me in the grave,

Light my pyre

Gather the female folks of my Marudhar

To sing 'Kesariya' for me

Let my five elements

Emerge with the existence,

Listen again

Many a woman has performed 'Sati' in 

Rajputana's history,

Now this would be your turn,

I crave for your 'Ichha-mrityu.'

We will be born again

As a pair of swans

To live together

In the pure water of

Mansarovar...


My soul is living with you 

In this birth

Together we will be  with our bodies

In the next birth,

To end the cycle of birth and death.

O The Known Unknown !

You went away that day

Like a thief 

Now you come running

Like a tirathankar,

I am taking the last breath of this life,

My eyes wide open

Waiting for you

Waiting for you !

My Yogi,

We cannot live together

Let us  at least die together

To be reborn,

You know this very well,

No label of religion is

Pasted on birds...


(Salah-l-janajah=funeral prayers)


Hindi Version :

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ओ जाने पहचाने अजनबी..!! (Hindi Version By Muditaji)

#####

देखा था पुन:

तुमको

टाइम स्क्वायर पर,

दिखे थे

कितने अलग से तुम

उस ऊर्जा से

ओत प्रोत समूह में ..

रुद्राक्ष के मोती ,

केसरिया दुशाला

और चमकते मस्तक से

दैवीय प्रकाश

मानो हो रहा था प्रसारित

और

उसी क्षण

महसूस हुआ

कि जानती हूँ मैं

युगों से

तुमको ..

बढ़ी थी

अभिनन्दन करने

तुम्हारी तरफ

किन्तु

तुम नहीं थे

कहीं भी ...

तुम पलायनवादी !!

भाग गए थे

मुझसे ..

एक बार फिर ...


उसी क्षण से

बन गए थे

तुम

तलाश मेरी ..

ढूँढा तुमको

मैंने

चारों महानगरों में,

बनारस के घाटों पर,

ऋषिकेश में गंगा के तट पर ,

कन्याकुमारी की चट्टानों पर,

शांति निकेतन में ,

और नहीं छोड़ा पिंडी ,

लाहौर

और

करांची भी

ढाका ,

मेमनसिंह ,

चितवन

और

यांगून में भी

नहीं था कोई

पदचिन्ह तुम्हारा..

मिले कई

तुम से

दिखने वाले भी

किन्तु थे वो

सिर्फ

प्रतिकृति तुम्हारी ..

ढेरों बातों से

करते हुए

कोशिश

साबित करने की

कि वो

तुम ही हैं ..

किन्तु

मेरे दिल की तरंगों ने

हमेशा नकार दिया

करने को

यकीन उन पर


फिर देखा

चित्र तुम्हारा

फिरंगो के साथ

मानसरोवर में

और

साथ ही यह खबर

कि

आखिरी बार

दिखे थे वहीं तुम ..

कहना था

साथियों का तुम्हारे

कि तुम हो गए थे

अदृश्य ..

बस..

अदृश्य ...!!!!


अब शांत हूँ मैं

स्थिर हूँ

कोई भटकाव नहीं ,

कोई तलाश नहीं

अब है सिर्फ इंतज़ार

मेरी आखिरी साँस तक

तुम्हारे आने का

तुम आओगे न

मेरे अंतिम संस्कार पर ..!

सुनो ..!!

मैं बनना चाहती हूँ

मानसरोवर का हंस

तुम्हारे साथ जोड़े के रूप

मे...

मैं नहीं चाहती

मेरे अवशेष

रहे इस धरती पर...

नहीं कर सकती हूँ

मैं इंतज़ार

रोज़ ए मेहशर  का ..

मत देना इजाज़त

इमाम को

सलात-अल-जनाज़ा पढ़ने की

किसी को भी

मेर अभिशांत शरीर को

अल-दफीन

ले जाने मत देना

मुझे कब्र में नहीं दफनाना ...

जलाना मेरी चिता

और

इक्कठा करना

मेरे मरुधर की बालाओं को

जो अपने सतरंगी लहरिये

ओढ़ कर गाएंगी

'केसरिया'

मेरे लिए ..

होने देना

विलीन

मेरे

पञ्च तत्वों को

विराट

अस्तित्व में ...

और सुनो एक बात ...!!

राजपूताना इतिहास में

हुई हैं "सती "

नारियां कितनी ही ..

अब बारी है तुम्हारी ,

मुझे लालसा है

तुम्हारी

'इच्छा मृत्यु 'की ..

लेंगे हम

जन्म दुबारा

बन कर

हंसो का जोड़ा

मानसरोवर के

पवित्र जल में


रही है

रूह मेरी

साथ तुम्हारे

इस जन्म में ...

होंगे साथ हम

सशरीर ,

अगले जन्म में ,

होने को मुक्त

इस जीवन-मृत्यु के चक्र से ....

ओ जाने पहचाने अजनबी !!

भाग गए थे

उस दिन तुम

मानिंद

एक चोर की ..

आओ भागते हुए

तुम

अब एक 'तीर्थांकर '

हो कर ...

ले रही हूँ

आखिरी सांसें

इस जन्म की मैं ...

मेरी आँखें खुली है..

इंतज़ार में तुम्हारे ..

इंतज़ार में तुम्हारे ..

ओ योगी !!

हम साथ जी न सके तो क्या

कम से कम

मर सकते हैं

हम

साथ साथ

लेने को पुनर्जनम ....

तुम भी

भलीभांति

जानते हो

ओ वीतरागी !!!

पक्षियों पर

नहीं होता

चस्पां

कोई नाम

किसी धर्म का ......


(चस्पां-चिपका हुआ )

Friday, 25 June 2021

कहानी रही अधूरी है.....


कहानी रही अधूरी है...

############


ज़ख्म लगे पर उफ ना करना, आशिक़ की मजबूरी है, 

तेज़ थपेड़े सहते रहना, साहिल की मजबूरी है...


एकतरफा हो प्यार जहाँ पर, दिल कैसे मिल सकते हैं, 

साहिल से मिल गुम हो जाना, लहरों की माज़ूरी है...


शोर मचाता सागर नीचे, उपर बादल रोते हैं , 

ऐ लहरों को गिनने वाले, खवाहिश तेरी अधूरी है...


चाँद  कुमुदिनी का अफसाना, यारों बहुत पुराना है, 

जिस्म गुल अफशॉं, रुह पशेमाँ, वजह महज़ ये दूरी है ...


राधा, मीरा एक श्याम को कालिंदी व रुकमन हैं, 

भूल गए सब इक लम्हे में, कहानी रही अधूरी है...


कल तक जो दिल में बसते थे, आज हुए अंजाने हैं, 

राहे सफर में साथ है छूटा, कैसी यह मजबूरी है...


माज़ूरी=विकलांग  अफ़शाँ=बिखरा हुआ,  पशेमाँ=लज्जित, परेशान 



Tuesday, 15 June 2021

खोए हुए पंख मेरे : भावानुवाद


(मेरे एक दोस्त हैं पाकिस्तान की एक रॉयल फ़ैमिली से. बहुत अच्छा लिखते हैं, उनका एक नोवेल भी आने वाला है. उनकी एक अंग्रेज़ी पोयम का भावानुवाद थोड़े रूपांतरण के साथ किया है. मेरे उन दोस्त का नाम है नवाबजादा सय्येद शम्स हैदर साहब)


खोए हुए पंख मेरे...

#########

लौटा दे कोई मुझे 

खोए हुए पंख मेरे...


चाहती हूँ मैं उड़ना 

ऊँची उड़ान भरके 

करना चाहती हूँ विश्राम मैं 

थम कर 

बीच रूत के मेघों के,

करूँ मैं अटखेलियाँ 

बारिश की बूँदों संग 

सुनते हुए बादलों का गर्जन 

बूँदों की रिम झिम पर

थिरकते हुए...


लौटा दे कोई मुझ को

खोए हुए पंख मेरे...


जिया है जीवन बंदिनी सा 

एक दीर्घ काल खंड में 

किंतु वांछा है आज 

कोई ताज़ा सा पवन झोंका 

उड़ा दे मेरे बालों को 

सरसराती मादक हवा 

सहला दे मेरे गालों को 

छुए मेरे चेहरे को 

यह दीवानी शबनम...


लौटा दे कोई मुझ को

खोए हुए पंख मेरे...


आ गया है समय 

वीरांगना हो जाने का 

करने को भंग 

अदृश्य बेड़ियों को 

लिखने और गाने को 

एक प्रेम गीत नया नया...


लौटा दे कोई मुझ को

खोए हुए पंख मेरे....


चाहना है मेरी 

कर पाऊँ वो सब कुछ 

जो कर ना पायी थी 

अब तक,

हो जाऊँ आरूढ़ 

प्रेम और ख़ुशी के रथ पर

छोड़ दूँ वो सब 

जो देता रहा आघात 

अब तक,

कर पाऊँ इलाज 

मेरी गहरी चोटों का 

खोज कर निदान 

मेरी उस पीड़ा का 

जो सहती रही हूँ मैं 

अब तक...


लौटा दे कोई मुझ को 

खोए हुए पंख मेरे...


Khoye Huye Pankh Mere..,

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Lauta de koi Mujh ko

Khoye huye pankh mere...


Chahti hun Mein udna 

Unchi udaan bhar kar,

Karna chahti hun vishraam tham kar 

Beech rut ke meghon ke 

Karun main atkheliyaan 

Barsaat ki boondon sang,

Sunte huye badlon ka garjan 

Boondon ki rimjhim par 

Thirkate huye...


Laute de koi mujh ko

Khoye huye pankh mere...


Jiya hai jeevan bandini sa 

Ek dirgh kaal khand men 

Vaanchha hai aaj 

Koi taza sa pawan jhonka 

Uda de mere baalon ko 

Sarsaraati madak hawa 

Sahlaa de mere gaalon ko

Chhuye mere chehre ko

Yah deewani shabnam...


Lauta de koi mujh ko

Khoye huye pankh mere...


Aa gaya hai samay

Veerangna ho jane ka

Karne ko bhang 

Adrishy bediyon ko

Likhne aur gaane ko

Koi prem geet naya naya.....


Lauta de koi mujh ko

Khoye huye pankh mere....


Chahna hai meri

Kar paun vah sab kuchh

Jo kar naa payi 

Ab tak

Ho jaun aarudh 

Prem aur khushi ke rath par 

Chhod dun vo sab

Jo deta raha aaghaat ab tak

Kar paaun main ilaaz

Meri gahri choton ka

Khoz kar nidaan

Meri us peeda ka

Jo sahti rahi hun

Ab tak...


Lauta de koi mujh ko

Khoye huye pankh mere...


Vishraam =Rest,  Meghon=Clouds, Atkheliyaan=Playfullness, Garjan=roar, Thirakte huye=dancing.


Bandini=Captive/prisoner, dirgh=long, kaal=period


Veerangana=Brave Lady, Bhang=broken, Adrishy=Invisible, Aarudh=ridden, 


Chahna =desire, Aaghat=hurt/dhakka/takkar, Nidaan=Diagnosis, Peeda=pain.

कुछ विवशताएँ : निहारिका की कविता का भावानुवाद

 #AhPoetry


Theme: There must have been some compulsions...

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(हिंदी भावानुवाद के साथ)


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No there weren't!

No compulsions,

No obligations,

Instead, I chose....


And once chosen,

I am accountable,

Better responsible,

Highly aware....


Alternatives abundant,

Decision solidarity,

No cribbing,

Hence no weeping....


Either it's your own good,

Or someone else's,

Debts carried n brought forward 

Karma is justified....


No there weren't!

No compulsions,

No obligations,

Instead, I chose....


 - Niharika Jain 


हिंदी भवानुवाद विजया आंटी और विनोद अंकल द्वारा 

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था नहीं ऐसा कुछ भी 

ना थी कोई विवशता 

ना थे कोई दायित्व भी 

प्रत्युत है चुनाव मेरा ही....


एक बार चुन लिया जो

देना उत्तर मुझ को को ही 

बेहतर है ले लूँ ज़िम्मा 

जागृत भरपूर चैतन्य मैं....


विकल्प हैं बहुतेरे 

निष्ठा है संग संकल्प के 

ना कोई वृथा आलोचन

ना ही प्रलाप और क्रंदन...


घटि  है स्वहित हेतु 

या निमित किसी परहित को 

रिन बंधन निरंतर अग्रेसित 

कर्म सदा न्यायोचित 


था नहीं ऐसा कुछ भी 

ना थी कोई विवशता 

ना थे कोई कर्तव्य दायित्व 

प्रत्युत चुनाव मेरा ही...

तू ऐसा सागर है.....



तू ऐसा सागर है...

#########

तू ऐसा सागर है 

के लहरे बन जाए हम तेरी 

तू ऐसा सागर है 

तू ऐसा सागर है....


तेरी जिंदगानी है 

जैसी भी चलाए तू 

रहमत तेरी आला 

यूँ सब पे लुटाए तू

सितारे कदमों में तेरे 

चाँद यक तेरा चाकर है 

तू ऐसा सागर है....


मेरे इस ज़ख़्मी जीवन पर 

मलहम तुम को ही लगानी है 

हर साँस जो मेरी है 

तेरी ही कहानी है 

पनाह में रख ले तू मौला 

तू अमृत का गागर है 

तू ऐसा सागर है....


सितारों में बसता हर लम्हा 

तेरा ही नजारा है 

हर शै में बसा है तू

मुझे तेरा सहारा है 

सब तेरे बालक हैं 

कोई ना कमतर बढ़तर है 

तू ऐसा सागर है....


(Extempore)

Monday, 31 May 2021

प्यार भी है मौसम सा : विजया


प्यार भी है मौसम सा...

++++++++++++

(1)

तुमने कह दिया था ना 

नहीं जानते अब तुम मुझ को 

मेरे मिज़ाज, मेरी शख़्सियत, 

मेरे किरदार 

बदलते रहते हैं सारे..

सुबह जब होती है 

हुआ करती हूँ मैं 

मीठी मीठी ख़लीक़ ओ रूमानी 

दोपहर जब गर्म ओ मर्तूब हो जाती है 

मैं हो जाती हूँ

हक़ीर ओ सख़्त जुबान 

और 

फेंक देती हूँ तुम पर 

अपनी बदमिज़ाजी ओ चिड़चिड़ापन....


(2)

मैं नहीं जानती 

क्या है सच 

क्या है झूठ 

मगर कहानी है कुछ ऐसी सी....


एक सुनहली धूप भरे आकाश वाले दिन 

परवान चढ़ा था 

हमारी मोहब्बत का अफ़साना 

बजाई  थी तालियाँ सारी कायनात ने 

मनाने को इस अज़ीम दास्ताने इश्क़ का जश्न,

उफ़्फ़ ! अचानक एक दिन 

घिर आए थे काले बादल 

चुरा ले गए थे वे

सूरज सी मुस्कान को 

चला गया था इश्क़ बेहोशी की नींद में 

शायद दो एक साल के लिए....


और एक दिन रिमझिम बारिश वाले दिन 

हमें सतायी थी याद 

उन कोमल कोमल प्यार भरी 

भीगी भीगी ठंडी रातों की 

हो गए थे तब एकमेक हम 

अपने ही बनाए 

प्यार के घरौंदे में

समा कर एक दूजे में 

उस बरसते हुए 

सारे के सारे दिन में...


वह आधी रात थी 

जब तेज तूफ़ान आया था 

बहुत गंदा सा था ना वह मौसम 

ना जाने क्यों मजबूर हो गए थे 

इस दीवार को बनाने को 

और क़ायम कर ली थी दूरी अपनी फिर से, 

एक खोखला सा ख़ालीपन बरपा था 

अपने दरमियान पूरे साल 

कितने तड़फते रहे थे 

अपने आशियाने मोहब्बत के एहसासों के लिए 

मगर फिर भी दोनों की अना ने 

पसंद किया था 

रेशम के कीड़े के खोल में पड़े रहना...


(3)

आज कुछ गर्म सा दिन है 

सूरज भी अलसाया सा बाहर आ रहा है 

फ़िज़ा मे गरमी है ज़रा सी 

कोशिश की है मैं ने मुस्कुराने की 

कहा भी है तुम्हें, "हेल्लो",

जकड़ लिया है तुमने हाथ मेरा 

और कहा है : कभी ना बदलना 

मुस्कुरा रही हूँ मैं 

अपनी अश्क़बार आँखों में 

याद करते हुए 

उन सभी मौसमों को 

जब जब हमने प्यार किया था 

जब जब हमने नफ़रत की थी 

उफ़्फ़ ! कितना जाया कर डाला है 

वक़्त हमने ?


यह तुम हो 

यह मैं हूँ 

कितना प्यार करते हैं हम एक दूजे से 

क्यों बदलें हम मौसम के साथ ?

हो सकती हूँ मैं अंधड़ कभी 

तो कभी बवंडर भी 

मेरा दिल मगर धड़कता है वैसे ही 

बबजूद मौसमों के बदलने के, 

यक़ीन करो, मेरे प्यार !

मैं कभी नहीं बदली...

कभी भी नहीं....

Sunday, 30 May 2021

मौसम...

 


मौसम...

######

वुज़ुद है मेरा

मौसमों से ,

कभी भी 

ख़त्म ना होने वाले मौसम,

ख़ुद को दोहराते हुए

यादों को दोहराने वाले 

मौसम,,,


बेजान डालियाँ

सफ़ेद बर्फ़ 

नीला आसमा

सूरज की चमक 

लाल पत्ते

हवाओं का चलना

हरी घास 

और दरिया का बहना 

ये सेहर कर देने वाले मौसम 

हो जाते हैं सबब 

लुत्फ़ ओ मसर्रत के मुझ को 

यादें खिंची चली आती है 

मेरी रूह पर 

उनकी गहराइयों में  

घोलता हूँ ख़ुद को मैं,,,


मेरे ही मौसम 

बना डालते हैं मुझे 

कभी बदमस्त 

कभी दीवाना 

कभी खब्ती..

छोड़ देते हैं लाकर 

मुझे एक फाँस में...

उल्टा चलने लगती है घड़ियाँ 

फिर से बदल जाते हैं मौसम,

कैसे  अदल बदल कर पाए कोई 

यादों और लम्हों को,,,


करके तस्लीम 

हर मौसम को 

करते हुए दुआ सलाम 

गुज़रते लम्हों से 

लेता हूँ मैं साँस 

अफ़्सुर्दा बेदिल सर्द हवा में 

और छोड़ता हूँ 

साँसों से गर्म बादलों को,,,


ख़ुशगवार होते हैं मौसम 

ग़मज़दा होते है मौसम 

निहायत ख़ूबसूरत होते हैं मौसम 

पागल दीवाने होते हैं मौसम,

वुज़ुद है मेरा

मौसमों से ,

कभी भी ख़त्म ना होने वाले मौसम,

ख़ुद को दोहराते हुए

यादों को दोहराने वाले मौसम,,,


मसर्रत=आनंद, अफ़्सुर्दा=उदास, सेहर=वशीकरण/मोहित

Thursday, 27 May 2021

महामारी स्वच्छता दिवस पर....: विजया



माहवारी स्वच्छता दिवस पर...

+++++++++++++++

शर्म और चुप्पी का विषय है 

आज भी 

आधी आबादी को कभी भी 

नहीं माना था ना 

एक अहम हिस्सा इंसानियत का....


सिर उठा कर आज 

होने लगी है बात जब 

Wa S H की 

जल (water)

स्वच्छता (sanitation)

आरोग्यता (hygine) या 

हाथ धोने (Hand Wash) की,

तो आई है चेतना कुछ हद तक....


महामारी के शोर बाजों को 

क्या आई थी याद कभी 

स्त्री पर समाज के थोपे कलंक 

जो है निहायत प्राकृतिक 

समय चक्र माहवारी की

जिसके चलते है प्रजनन 

संसार का जीवन 

उस सार्वभौमिक सत्य की पारी की...


भूल गए हैं सब पल में 

Toilet क्रांति को 

भूल गए हैं क्षण में सारे 

Kitchen क्रांति को 

भूल गए हैं पलक झपकते ही 

'छत' (पक्के घर) की क्रांति को...


चलना आरम्भ हुआ 

और भी गति पानी है,

किंतु राजनीति के गिद्धों के लिए 

सब कुछ तो अनजानी है 

विरोध के एक सूत्री कार्यक्रम को  छोड़ 

साथ दो उस नेतृत्व का 

जिसने पहली दफ़ा 

सुध ली है आधी आबादी की

और आज महमारी से लड़ने की ठानी है...

Sunday, 14 March 2021

गोलाश्म और नदी....

 

गोलाश्म और नदी....

##########

विशाल पहाड़ की ढलान पर

दौड़े जा रही थी 

एक सुंदर नदी 

चम चम चमकती हुई 

स्फटिक सी स्पष्ट,

वैसा ही था ना बेदाग़ 

वह पानी 

अनखोज अनछुआ 

इंसानी तहज़ीब के हाथों से....


ख़ुद में करके समाहित

बसन्त में पिघलती बर्फ को 

पा जाती थी नदिया और ज़्यादा ताक़त,

बहती थी वेग में 

बदलते हुए सतह पहाड़ की 

आती जो उसकी राह में ,

लुढ़काती हुई पत्थरों को

तोड़ती हुई पेड़ों को  

नहीं था कोई भी वहाँ 

जो कर सकता सामना 

उसकी तेज कच्ची ताक़त का

बासंती मौसम के साथ साथ 

बढ़ता जाता था दायरा उसका....


मिली थी इसी वसंत 

सरे राह चलते चलते 

एक गोलाश्म से 

बहुत ख़ूबसूरत 

पुष्ट डील डोल 

चिकनी त्वचा 

सोचा था नदी ने 

बहा ले जाऊँगी उखाड़कर उसे 

साथ अपने,

किंतु गहरी थी जड़ें उसकी 

नामुमकिन था 

पूरा होना उस मन्सा का,

नदी ने बदला था थोड़ा सा अपना रास्ता

लौट आयी थी फिर 

पहले की अपनी राह पर 

कहते हुए : "मिलूँगी फिर कभी"....


ज्यों ज्यों गरम रूत आती 

हिमखंड के हिमखंड टूट कर 

नदी को और ज़्यादा 

पानी और कुव्वत दे देते 

बहाव में और तेज़ी आ जाती 

बाढ़ भी घटित हो जाती 

सब कुछ तोड़ती उखाड़ती

बढ़ती जाती दरिया 

जैसे उस ख़ूबसूरत नायक को 

विचलित नहीं कर पाने का क्रोध हो,

तोड़ तोड़ देती कठोर चट्टानों को 

छितर जाते पेड़ पौधे वनस्पति 

और भी ना जाने क्या क्या....


मैदान में आकर तो 

किनारों को तोड़ बाहर हो जाती 

करने लगती गाँव बस्तियाँ तबाह 

सब डरते थे 

उसके विकराल रूप से,

कुंठा क्रोध प्रतिशोध शोर 

जैसे हो गया हो व्यक्तित्व उसका 

बस एक ही बात सालती थी नदी को 

क्यों नहीं उस गोलाश्म को 

अपने साथ ले आ पायी....


अगली यात्रा में कर ही दिया था 

नदी ने इजहार अपने प्यार का 

समा गया था गोलाश्म उसके प्रवाह में 

या कहें नदी ने उसको ले लिया था 

अपने आलिंगन में 

बंट गयी थी नदिया छोटी छोटी धाराओं में 

बहने लगी थी कई दिशाओं में 

गोलश्म को अपनी छुअन में 

हर पल रखते हुए....


अब उसके पास सब के लिए 

कुछ न कुछ उपहार था 

गिलहरी के लिए मेवे 

तोते के लिए अनार दाने 

छोटे छोटे पौधों के लिए पानी 

कई कलमें जो बूटे बन सकती थी 

ख़रगोश और हरिण के लिए भी 

कुछ ना कुछ खाने के लिए....


मैदान में आने पर 

चलने लगी थी नौका उसमे

लहलहा रहे थे हरियल खेत तटों पर 

कितने ही ध्यानी ध्यान करने लगे थे

किनारों पर पनपे वृक्ष कुंजों में 

चाहने लगे थे सभी नदी को,

कमाल था यह 

कुंठा समाप्त होने का 

ग़ुरूर मिट जाने का 

साथी को पहचान लेने का 

प्रेम में डूब जाने का....


उस मीठी प्यारी 

फुहार सी धारा को 

सभी तो प्यार करने लगे थे 

नदी स्वयं प्यार हो गई थी 

होना होता है ना प्रेम स्वयं को ही 

प्रेम करने और पाने के लिए....


(गोलाश्म=Boulder)

हाले दिल : विजया

 

हाले दिल...

++++++


क्या जाने कोई भी पूरा 

हाले दिल नदिया का 

रखना होता है जारी मुससल 

यह लम्बा उतार चढ़ाव का

बस एक ही तड़फ लिए 

मिलना है सागर से 

और गँवा देना है वुज़ुद अपना...


पहाड़ का तो क्या 

दम्भी और उज्जड़ 

खड़ा रहता है 

अड़ा रहता है 

उसी जगह अपने पाँव रोपे 

कहाँ आभास उसे तरलता का 

कहाँ अन्दाज़ उसे सरलता का...


पहचानती है 

नदी को गर कोई तो वह है 

उसकी सखी नाव 

सदा निबाहती है साथ उसका 

चलते हुए भी रहती है संग में छूकर 

जोड़े रखती है ख़ुद को थम कर 

लंगर में बंध कर...


सच तो यह है 

जो दिखता है वह होता नहीं 

जो होता है वह दिखता नहीं

कलम और शब्दों का क्या 

कुछ को कुछ साबित कर दे 

पहुँचता है मगर सीधा दिल तक

आंका हो जो तुमने 

किसी सादे केनवास पर...

ख़ुद में लौट आएँ...



ख़ुद में लौट आएँ...

##########

ना हो तलब ना ही तमन्ना 

वह लम्हा फिर से चला आए

अब सुनें कुछ दिल की ऐसे के 

उठें ,चलें और  ख़ुद में लौट आएँ...


आँधियों में उड़ी ख़ाक से 

भर गया है घर मेरा 

साफ हो जब तलक गर्द

यक कोने में ख़ुद को सिमटाया ज़ाए...


बे अदब, बद इख़लाक, बा हरामती

हुआ है पानी हर दरिया का 

लगा डुबकी खुद के समंदर में

लबों को टुक भिगोया जाए...


जागना और सोना 

हैं यक सिक्के के ही दो पहलू

सोए हैं पाँव पसार जिस चद्दर पर 

हो लिहाफ़ वो सिर पे चली आए...


बीज और माटी का 

कैसा ग़ज़ब ये रिश्ता है 

दबे, नमू हो,पनपे, खिले,मुरझाए 

गिरे, फिर से माटी हो जाए...


***************

मायने :


बे अदब, बद इख़लाक, बा हरामती=तीनों ही दूषित या polluted को जताते हैं


नमू हो =अंकुरित हो

Monday, 1 March 2021

शउर मजबूरी के,,, : विजया


शउर मजबूरी के...

++++++++++

उसके जन्मने से 

बहुत पहले ही 

बिगाड़ दिया था समाज ने 

संतुलन अपनी 

माप जोख की तराजू का 

और 

समतलता उस ज़मीन की भी 

जहाँ उसके डगमगाते कदम 

सीख सकते शायद 

अपने पावों पर खड़ा होना 

और 

चल भी पाना 

एक स्थिर चाल से...


समाज की छद्म नैतिकता ने 

तोड़ डाले थे वो बाजू 

जिनके साथ 

उसके कच्ची माटी जैसे 

मस्तिष्क को 

गढ़ा जाना था 

और 

आकार पाना था,

ज़िम्मा  था जिन पर 

न्याय करने का 

उन्ही बहुसंख्यको ने 

सुना दिए थे सारे फ़ैसले 

ख़िलाफ़ उसके...


नाममात्र के अधिकारों 

और चुप्पी की आवाज़ लिए 

वो नाबालिग गदराया जिस्म 

हो चला था 

एक दोहरा ख़तरा 

ख़ुद के लिए भी,

पहनना औंढना

बोलना चलना 

हँसना मुस्कुराना 

पढ़ना लिखना 

खेलना कूदना 

अपने चुनाव ख़ुद करना 

शिद्दत से जी लेना 

सिर उठा कर चलना 

सब के लिए दफ़ाएँ थी 

समाज और धर्म के 

पेनल कोड में...


फ़तवे 

हमेशा से भी ज़्यादा 

एक से ही थे 

सर्वसम्मति से, 

गुनहगार हर हाल में 

लड़की ही होती है, 

अगर बढ़ती है तेज़ी से तो भी 

या छू लेता है कोई उसे बेढंगा होकर 

या कर बैठता है जबर कामांध हो कर,

इसीलिए तो 

सीख लेती है लड़कियाँ 

शउर मजबूरी के 

पा लेती है महारत 

शर्मिंदा और दबा कुचला होने में 

हो जाती है हावी उस पर 

हुनरमंदी दर्द छुपा लेने की,

क्यों ना हो ऐसा आख़िर 

गलती उसकी ही तो होती है 

दुनिया में आने के 

पहले से ही

और दुनिया में आने के बाद भी...

प्रवेश हमारा,,,,,


प्रवेश हमारा,,,

##########

मन्सा और क्रियान्वन के 

बीच का अंतर 

भर जाता है न जाने 

कितनी प्रक्रियाओं से :

मानसिक

भावनात्मक

और 

अज्ञात-अनाम,

क्या पैठता है 

इन अंतरालों में ?


मन्सा और क्रियान्वन के 

बीच के जुड़ाव में 

कौन करता है विचरण ?

भावनाएँ

आवश्यकताएँ

पीड़ा

जड़ता

और 

भय...

कौन देता है अभिप्रेरण 

इन सारी दिशाओं को ?


मन्सा और क्रियान्वन के 

बीच होता है ज्यों कुछ अपरिहार्य,

भक्ति

प्रेम

शक्ति

और 

आत्मीयता,

क्या हमारे जीवन के ये पक्ष 

हो पाते हैं हमें 

बोधगम्य?


मन्सा और क्रियान्वन के 

बीच क्या मिल पाते हैं हम

अपने विस्मय से ?

हौसले 

एकाग्रता

और 

आश्चर्य,

इन्हीं स्थितियों में ही तो 

होता है 

प्रवेश हमारा 

ध्यान में...


क्रियान्वन=action,मन्सा=intention, प्रक्रियायें=processes, जड़ता=inertia, अपरिहार्य=indespensible, अंतराल=recesses, अभिप्रेरण=motivation

बोधगम्य=comprehensible,विस्मय=awe.

Friday, 12 February 2021

मैं बेपरवाह....


मैं बेपरवाह...

######


अल्लाह हू अल्लाह हू अल्लाह हू

अल्लाह हूँ  अल्लाह हूँ अल्लाह हू...


कश्मकश उलझने, उलझने कश्मकश 

उम्मीद का दीया ही ,देता  उजाला बस 

किस किस की करूँ परवाह मैं बेपरवाह

लुत्फ़ रक़्स का मिला तो हुआ हूँ मैकश..


अल्लाह हू अल्लाह हू अल्लाह हू

अल्लाह हूँ अल्लाह हूँ अल्लाह हू...


तू ना सही....तेरा होना तो यहाँ है 

सितारों से ज़रा आगे तेरा मेरा जहाँ है 

चल रहा है मेरे साथ हर पल वो तू है 

तू यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ  जाने कहाँ कहाँ है..


अल्लाह हू अल्लाह हू अल्लाह हू

अल्लाह हूँ अल्लाह हूँ अल्लाह हू...


ना एक हो सकती है दो शम्माएँ,सुन

रोशनी दोनों की हो जाती है एक,सुन 

दुई की बातें कर कर ना थका है रे तू

पुतला हूँ मैं तो क्या,मेरा खुदा मैं, सुन..


अल्लाह हू अल्लाह हू अल्लाह हू

अल्लाह हूँ  अल्लाह हूँ अल्लाह हू...

पात्र...

 पात्र...

####

फूलों का नही

शूलों का ही था 

पात्र मैं,

स्वीकार हुए 

मुझे तभी सहर्ष 

उपहार नुकीले 

काँटों के,


रखी नहीं थी मैं ने 

अपेक्षा कभी,

कि कोई मुझे 

गुलाब दे,

नयनों का 

खारा पानी 

हुआ था मंज़ूर मुझ को 

ना थी तलब 

कोई मुझे 

अपने दिल की 

शराब दे...

कहे बिन....: विजया

 

कहे बिन...

+++++

बहुत सहा 

अब सहा न जाता

कहे बिन 

अब रहा न जाता...


पौर पौर में 

दर्द समाया 

मन पर भी 

पीड़ा का साया 

नदिया मैली 

अब बहा न जाता

कहे बिन 

अब रहा न जाता...


जोड़े शाश्वत 

दिलासा झूठी 

वादे सारे 

सब क़समें झूठी 

जर्जर चादर 

अब तहा न जाता

कहे बिन 

अब रहा न जाता...


आँसूँ कब के 

शुष्क हुए हैं 

लब मेरे भी 

खुश्क हुए हैं 

राख हुई 

अब दहा न जाता 

कहे बिन 

अब रहा न जाता...


देह आत्मा 

सब टूट गए हैं 

वेदन सोते 

फूट गए है 

कच्चा धागा 

अब गहा न जाता 

कहे बिन 

अब रहा न जाता...


---विजया-2021


(साहेब का शुक्रिया...मेरी हर ख़ुशी पर नाम है जिसका😊

किसी और के मनोभाव जी लेने और लिखने में साहेब की महारत का लाभ मिला है मुझे इस रचना के लिए गाइडेन्स के रूप में)

Tuesday, 19 January 2021

हाइकु नैसाखिए के...


हाइकु नौसखिये के,,,,

###########


१)

कैसा घमंड 

एकाकी है पतंग 

कटती रही...


२)

हारा संसार 

अपना ही प्रचार 

झूठे बहाने...


३)

जीवन भर 

संबध का बंधन 

यही बर्बादी...


४)

गुड ओ तिल 

चिपचिपाहट ही 

मिठास कहाँ...


५)

कटी पतंग 

घर है ना ठिकाना 

मैं अनजाना...


चलते चलते 😀


बताएँ त्रुटि 

हौसला आफजाई 

यही कमाई...

😊😊😊

संगीता दीदी 

किया है संशोधन 

हो अनुमोदन 😊

धन्यवाद : Sangeetadi और Pushpaji.....ध्यानार्थ : Kanakji)

कहाँ खड़े हैं हम...,: विजया


कहाँ खड़े हैं हम आज ?

+++++++++++++


देखा करते थे 

हम भी सपने सुहाने,

होकर लहरे 

तलाशते अपनाते 

हर मौक़े को 

पहुँचने किनारों के पास,

पहुँच कर लौटना..

फिर पहुँचना...

बार बार लगातार,

लगता था नाकाफ़ी मगर 

इतना सब पा जाना  भी...


देखा करते थे 

हम भी सपने सुहाने,

आकाश को लाल रंगने के 

अपने जलते हुए जुनून से,

ताप था जिसका 

सूरज से भी ज़्यादा,

बुझ जाते थे 

ये शोले भी भड़क कर,

मगर आह !

वो लुत्फ़ और वो सुकून !!


देखा करते थे 

हम भी सपने सुहाने,

आंक सके आग से 

गा सकें संग हवा के 

बेफ़िक़्र दीवाने हो कर,

और कर रही हो आवा जावी 

आवारा रूहें 

गुजरते हुए क़रीब से हमारे...


देखा करते थे 

हम भी सपने सुहाने,

कैसे पीछा किया करता था चाँद 

ताकतवर सूरज का,

क्या मिला था मगर उसको  

बड़ी मशक़्क़त के बाद ?

बस टिमटिमाहट 

नन्हें कमजोर सितारों की...


हम ही तो थे ना 

जो देखा करते थे तारे

एक दूजे की आँखों में,

सोचते हुए 

कोई नहीं है बढ़ कर हम से,

मगर कौन हैं हम आज ?

कहाँ खड़े हैं हम आज ?


~~~~:~~~~

(Thanks to Saheb yane Vinod Singhi ko 

हर सपने और हक़ीक़त में साथ रहने के लिए 

आज तो इस नज़्म से सीमित छेड़ छाड़ करने के लिए.)

प्रेम कर पतंग बस चाहती है प्रेम...

 


प्रेम की पतंग बस चाहती है प्रेम...

########

प्रेम की पतंग का 

कौन हिस्सा तेरा 

कौन सा मेरा 

मालूम नहीं....


डोर कौन है 

हाथ किसके है

मालूम नहीं....


किसका आकाश है 

किसकी मुँडेर हैं 

मालूम नहीं...


मालूम है तो 

बस इतना 

साथ हैं 

उड़ने में भी 

मचलने डोलने में भी 

स्थिर चाल में भी 

कटने में भी 

गिरने में भी 

लुट जाने में भी...


हर हालात ओ वक़्त का 

साथ है ना 

प्रेम

प्रेम की पतंग 

चाहती है बस 

प्रेम...

मालूम है ?😊