आसमान
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फैलाये थे मैंने
पंख अपने
तुम आकाश को
नाप लेने के लिए
तुम्हारी पूरी थाह पाने के लिए....
फिर भी आज
निहाल हूँ पाकर
अपना छोटा सा घरौंदा
जहाँ समेट रखे हैं मैंने
पंख अपने.....
मौजूद है आज भी
मेरा आसमान
वैसा का वैसा
और
क़ायम है
मेरे पंख भी
उड़ने का जज़्बा भी
कुव्वत भी....
(रवि बाबू की 'शेषेर कोबिता' से भी प्रेरित)
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