Sunday 30 September 2018

दरारें और झिर्रियाँ,,,,,,

आशु रचना-७७८
(धुन: ७७७: सौम्या)

दरारें और झिर्रियाँ
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ये दरारें और झिर्रियाँ
बड़ी शिद्दत से
खींच लेती हैं मुझे
जानिब ख़ुद के,,,,,

देखो ना !
पेड़ के दरके हुए तने से
निकल आते हैं झाँकते हुये
ये कोमल से बिरवे
जो बन जाते हैं ख़ुद एक दिन
घने छायादार शजर
लदे हुए
फूलों और फलों से,,,,

होता है ना ऐसा ही कुछ
जब ज़िद्दी कठोर चट्टान की
तरेड़ से होकर
फूट उठती है
मनभावन हरियाली
तोड़ते हुए क़ुदरत के कई क़ायदे
बन कर एक मिसाल
इसके मसावी और ग़ैरमसावी सिफ़ात की,,,

दिखता है कितना सहज
बहाव नदिया का
कभी पूरे उफान पर
तो कभी बिल्कुल खामोश,
कलकल की मीठी धुन को भूलाकर
जुनूने इताब का गुंजता हुआ इसका नाद
कर देता है पैदा दरारें कभी कभी
अपने ही किनारों में
जो बदल देता है बाज़ वक़्त रास्ते इसके,,,,,

बन्द दरवाज़े की
संकरी झिर्री से निकली
रोशनी की किरणें
करा देती है एहसास मुझ को
सूरज की प्यार भरी गर्माहट का
जो समा जाती है मुझमें
मेरी ही अपनी तंग दरारों से होकर,,,,,

करता हूँ एहसास
अपने 'होने' का
हो जाता है मंज़ूर जब वजूद
इन दरारों,
तरेडों,
झिर्रियों
और दरकों का :
जस का तस,,,,,

(मसावी=बराबरी के/ coequal/सम, सिफ़ात=गुण,
इताब=ग़ुस्सा/anger)


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