Sunday 30 September 2018

शह और मात : विजया



यह है शह-यह है मात...
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बिछी है बार बार
बिसातें शतरंज की
खेल होता है
हर बार
दिल के सफ़ेद
दिमाग के
काले मोहरों के बीच...

मैं हूँ रानी दिल की
होती हूँ करीब हर लम्हे
मेरे हमदम राजा के
करने को उसकी
परवाह और हिफाज़त,
बिना उसके
मेरा वुज़ूद कहाँ...

जानती हूँ
मेरा राजा भी है
राजा दिल का
बिलकुल पाक
आबे ज़मज़म सा
सफ़ेद कपडे सा
पारदर्शक स्फटिक सा....

खेलता है
कितना सहज और सरल
होशमंद होकर
बढा कर एक कदम
एक वक़्त में
और चलता भी है
ज़िन्दगी की मुश्किल राहों में
नितांत अकेला...

नहीं चाहती
चले अढ़ाई की चाल
एक बार भी कहीं और
अपना लेती हूँ मैं भी
ज़ेहनी चालें
काले मोहरों वाली
जीतने के लिए
सोचना जो होता है
प्रतिद्वन्दी जैसा ही...

बढ़ा देती हूँ
चुनिंदा प्यादे को
कुछ इस कदर
कि बन जाये
वो भी उन जैसा
पहुँच कर उनके ही खेमे में,
और कह दे
काले राजा को
यह है शह
यह है मात..R

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