Sunday, 14 February 2016

कुछ अस्फुट सा.. : विजया

कुछ अस्फुट सा..
+ + + + + +

(१)
दीपशिखा
प्रज्वल्लित रहती
बाती लेकिन
जल जाती है,
भक्ति उत्सव में
ना जाने
कितनीबातें
टल जाती है...
(२)
हर रजनी को
दीप जला
श्रेय लिया
सब करने का,
सोचों कितनों को
इस क्रम में
दुर्भाग्य मिला है
मरने का..
(३)
एक अंगी
चिंतन को लेकर
पाँव बढ़ाये
जाते हो,
जीवन के इस
सहज सफ़र में
अकेला स्वयं को
पाते हो...
(४)
भिन्न मिले यदि
कहीं तुम्हे तो
फरियाते
गरियाते हो,
अपने से
ऊँचा पाकर तुम
शावक सम
मिमियाते हो..
(५)
दंभ जिसे हो
ज्ञान का अपना
सब से बड़ा
अज्ञानी है,
गूगल समय में
सुन लो स्पष्ट
स्मृतियाँ सब
बेमानी है...
(६)
शब्द जाल
बुन बुन कर तुम
उलझाने को ही
उत्सुक हो,
रूप बदल
स्वरुप बदल
लाभ क्षणिक के
इच्छुक हो..
(७)
अर्थ पहुँच ना
पाए जब तक
शब्द
प्रलाप कहलाते हैं,
स्वसंवाद
घटित हो भ्रमवश
निज को ही
बहलाते हैं..
(८)
जीवन की
इस आप धापी में
किसको फुर्सत है
रोने की,
प्रतिस्पर्द्धा के
इस युग में
किसकी कुव्वत
कुछ खोने की..

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