अना ओ बदगुमानी की मिट्टी से...
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(1)
नहीं डिगे थे तुम
सुनकर भी किसी कमजर्फ़ का कहा :
ओ अदीब !
लफ़्ज़ जो तुम बिखेरते हो सफ़ों पर
नहीं जगा पाते
कुछ भी तो मुझ में,
कुछ भी तो नहीं होता उनमें
जिससे अनजान थी मैं पहले से ही
कुछ भी तो नहीं ऐसा उनमें
जो मैं ख़ुद नहीं कह पाती थी
जैसे कि झील में चाँद का अक्स
जैसे कि चाँद का रातों में
खाड़ी के ऊपर झूलना
और जहाज़ों का आना और जाना....
(2)
नहीं हुई थी कोफ़्त तुम्हें
सुनकर भी किसी ख़ुदगर्ज़ का कहा:
ऐ घुड़सवार !
दम नहीं है तुम्हारे घोड़े में
मुझे ले चलने का उस जगह
जहाँ कभी नहीं जा पायी मैं
नहीं खोज पाते ना तुम वह मक़ाम
जो पड़ा है अलग थलग सा
मेरे ज़ेहन में उमड़ते बवंडर के बीच,
कैसे पहुँचा सकेंगे वहाँ तक
तुम्हारे ये रुके रुके से हाथ,
देखो मैं तो अब उस दूर के तारे को ही
देख सकती हूँ बस अपने ख़्वाब में...
(3)
नहीं हुए थे तुम मायूस
जब कह दिया था किसी मगरूर ने
ऐ शायर !
मेरा नस्र ख़ुद में एक कायनात है
जो बजाहिर है मुझ से होकर,
एक नाक़ाबिले बयां जुबान की आवाज़ है
मेरे अल्फ़ाज़
जिसके होने का इल्म तक नहीं था तुम को
यहाँ तक कि सुनने के बाद भी
नहीं कर पाते हो तसव्वुर तुम जिसका...
(4)
इसीलिए तो
मैं सोच भी नहीं सकती
तुम्हें ख़फ़ा करने की
क्यों कि जानती हूँ मैं
तुम मैं है अकूत लियाक़त और क़ुव्वत
ख़ूबसूरती को देख पाने की
मुससल कुछ सीखने की ख़ातिर अपनाने की
सच और झूठ में फ़र्क़ समझ पाने की
खामोशी से गवाह होकर देख पाने की
तहे दिल से साथ निभाने की
देख कर भी बहुत कुछ अनदेखा कर देने की
किया है महसूस मैं ने
तुम्हारे सब्र ओ वफ़ा को
कर पाते हो मुआफ़ तुम
गलती को ही नहीं गुनाह को भी
माँग सकते हो तुम मुआफ़ी
खुदा से ही नहीं बंदों से भी
इसीलिए तो नहीं बना पाई हैं मैं कच्चे घड़े
अपनी अना ओ बदगुमानी की मिट्टी से...
(मायने :कमजर्फ़=अयोग्य, अदीब=लेखक, ख़ुदगर्ज़=स्वार्थी,मगरूर=घमंडी, नस्र=गद्य, कायनात=ब्रह्मांड, बजाहिर=प्रत्यक्ष, नाक़ाबिले बयां=अकथनीय)
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