मैं और तुम, तुम और मैं...
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जैसे जुदा नभ से है धरा
रुष्ट है अगन से वारि प्रवाह
वैसे ही तो हैं
मैं और तुम
तुम और मैं...
जैसे अश्रु हैं नयन से अलग
जैसे वृष्टि मरुथल से रुष्ट
वैसे ही तुम और मैं विलग
वैसे ही तो हैं
मैं और तुम
तुम और मैं...
कभी दिवस का अवसान देख
निशा के प्राकट्य को देख
पुष्प की मृत्यु को देख
होता सब का ही अवसान तू देख...
शशि का अवरोह देख
रात्रि का आरोह देख
पत्तों की झरन को देख
रूप के क्षरण को देख
होता सब का ही अवसान तू देख...
दो तट है मैं और तुम
मिल सकेंगे कैसे
मैं और तुम
राहें हैं अपनी है अलग अलग
कैसे जुड़ सकेंगे
मैं और तुम
दीठ एकांगी मेरी तेरी
मुड़ सकेंगे कैसे
मैं और तुम...
जैसे पृथक है रजनी प्रकाश
जैसे पुष्प आँधियों से रुष्ट
टूटा टूटा है अपना सम्बंध
मिलन पर भी है प्रतिबंध
वैसे ही तो हैं
मैं और तुम...
मेरा हृदय कोमल पंख सा
मेरा सोच है क्यूँ पंक सा
कैसा मेरा निर्बल संवेदन
असह पीड़ा और वेदन
उबरूँ मैं कैसे..उभरूँ मैं कैसे..मेरे पिय !
आए चैन कैसे मेरे हिय...
जैसे जुदा नभ से है धरा
रुष्ट है अगन से वारि प्रवाह
वैसे ही तो हैं
मैं और तुम
तुम और मैं...
कभी दिवस का अवसान देख
निशा के प्राकट्य को देख
पुष्प की मृत्यु को देख
होता सब का ही अवसान तू देख...
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