Sunday 29 September 2019

पतवार और क़ुतुबनुमा,,,



पतवार और क़ुतुबनुमा,,,
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थे अनजान हम
समंदर और साहिल की
हक़ीक़तों से,
चल दिए थे मगर
बहरी सफ़र पर
उस दिन ,
हुई थी मनसूबा बंदी  जिसकी
मुआशरे की घड़ी
औ ज़माने के कैलेंडर पर,
शुक्र है कर पाये
ये सफ़र हम मुकम्मल
हो के होशमंद पल पल,
पतवार जो थे हाथ में मेरे
और बता रही थी सिम्त तू
देख कर क़ुतुबनुमा,
गूँजती है आज भी तेरी आवाज़:
"बादबाँ खुलने से
पहले का इशारा देखना
मैं समंदर देखती हूँ
तुम किनारा देखना...."

(आख़री चार लाइंज़ परवीन शाकिर की ग़ज़ल से)

मायने :
बहरी सफ़र=समुद्री यात्रा, मंसूबा बंदी =योजना, मुआशरा=समाज, सिम्त=दिशा, मुकम्मल=सम्पूर्ण/समाप्त, क़ुतुबनुमा=क़म्पास/दिशा सूचक यंत्र, बादबाँ=पाल याने जहाज़ में लगाया जाने वाला पर्दा जिसमें हवा भरने से जहाज़ चलता है.

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