Sunday 22 September 2019

ना जानो तुम ना जाने हम : विजया


ना तुम जानो ना हम....
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ना तुम जानो ना हम,सच हो या भ्रम
मंज़र कितना ख़ुशगवार और प्यारा है
मासूम सा ये जुमला ना जाने कितनों के
हँसी ख़ुशी से जीने का सहारा है...

मिले थे तुम हम से,मिले थे हम तुम से
अनजान थे हम दोनों इश्क़ ओ प्यार से
हुआ 'वो' क़ुदरतन सा था बीच जो अपने
बिना किसी मुकालम: ओ इज़हार से....

वो तुम्हारा मेरी पसंद की चटपटी खिलाना
कुछ भी दुःख लागे,बना बातें मुझे बहलाना.
ढाल सा संग रहना, कभी ख़ुद से ना झगड़ना
तुनक मिज़ाजी भूला कर मेरी, कैसे ही मना लेना...

वजह बेवजह वो मेरा इठलाना और इतराना
भूलाकर दर्द अपना मुझे देख कर मुस्कुराना
थाम कर हाथ साथ चलना, राहें सही दिखाना
जो भी हो बहुत मुश्किल करके उसे दिखाना...

बालपन के ये किस्से हसीं इबारतों से
अमिट से लिखे हैं सफ़हात जिंदगानी पे
हर घड़ी हरेक लम्हा वारि जाऊँ मैं दीवानी
इश्किया हुनर और मासूम तेरी मेहरबानी पे...

बिन बोले सब कुछ समझ जाते हो तुम
ख़ामुशी से बहुत कुछ कह जाते हो तुम
मेरी हर चोट को दिल से सहलाते हो तुम
सच कहूँ आज भी वैसे ही बहलाते हो तुम...

मख़मली नरमी देती सुकुने रूह मुझ को
छुअन तेरी जिस्मानी, रबानी तफ़ीह मुझ को
तेरी हर नज़र में नज़र आये मेरा महबूब मुझ को
नसीहत तुम्हारी में दिखे आला मुअल्लिम मुझ को...

तेरे हर ख़श्म में पोशीदा, मेरी ही भलाई
दिखती है उसमें चोटें जो अपनों ने है पहुँचाई,
मत जाना आँसुओं पे वो थकन ओ दर्द मेरा
हर बात अपनी में ज़ाहिर मेरी तेरी आश्नाई...

ख़ज़ाना तेरे प्यार का कितना अकूत है
तेरे जीने का हर पैमाना इसका ही सबूत है
जब भी चाहूँ, मुझ को तुम अपना हाथ देना
साँस आख़री तक बस यूँ ही साथ देना...

(मुकालम: =संवाद, dialogue. सफ़हात=पृष्ठ. रबानी=divine, ईश्वरीय. तफ़ीह=उपहार. मुअल्लिम=mentor, शिक्षक, मर्गदर्शक. खश्म=कोप,anger.
पोशीदा=छुपा हुआ. आश्नाई=मैत्री. अकूत=अगणनीय.)

चलते चलते :
😊😊😊
कृष्णधर्मा में संगी की साँची ये दास्ताँ है
नहीं है ये चालीसा, ज़िंदगी से बाबस्ता है
जीया है हम दोनों ने, जी आज हम रहे हैं
कहे अनकहे साझे सब ख़ुशी ओ ग़म रहे हैं 🙂

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