Sunday, 29 September 2019

पतवार और क़ुतुबनुमा,,,



पतवार और क़ुतुबनुमा,,,
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थे अनजान हम
समंदर और साहिल की
हक़ीक़तों से,
चल दिए थे मगर
बहरी सफ़र पर
उस दिन ,
हुई थी मनसूबा बंदी  जिसकी
मुआशरे की घड़ी
औ ज़माने के कैलेंडर पर,
शुक्र है कर पाये
ये सफ़र हम मुकम्मल
हो के होशमंद पल पल,
पतवार जो थे हाथ में मेरे
और बता रही थी सिम्त तू
देख कर क़ुतुबनुमा,
गूँजती है आज भी तेरी आवाज़:
"बादबाँ खुलने से
पहले का इशारा देखना
मैं समंदर देखती हूँ
तुम किनारा देखना...."

(आख़री चार लाइंज़ परवीन शाकिर की ग़ज़ल से)

मायने :
बहरी सफ़र=समुद्री यात्रा, मंसूबा बंदी =योजना, मुआशरा=समाज, सिम्त=दिशा, मुकम्मल=सम्पूर्ण/समाप्त, क़ुतुबनुमा=क़म्पास/दिशा सूचक यंत्र, बादबाँ=पाल याने जहाज़ में लगाया जाने वाला पर्दा जिसमें हवा भरने से जहाज़ चलता है.

Tuesday, 24 September 2019

संतुलित जीवन (दीवानी सीरीज़)


संतुलित जीवन (दीवानी सीरीज़)
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नज़रिया दीवानी का
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दीवानी के सोचों में अस्तित्व बोध की तीव्र प्रबलता का agression और क्षोभ साथ साथ चलने लगता था. संस्कार में विनयशीलता और संवेदन उस प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति के साथ विरोधाभास के रूप में उभर आते थे. एक तरफ़ विद्रोह/क्रांति के भावों की तड़फ दूसरी ओर आदर्शों की स्वीकृति intellectual interpretetion के बिम्ब के रूप में घटित हो जाते थे, जैसे की उसकी यह नज़्म :

झुकना,,,,
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बौनी होती जा रही हूँ मैं
समझौतों का बोझ ढोते-ढोते,
अस्तित्व कंकाल होता
जा रहा है मेरा,,,

झुक कर चलते-चलते
झुकी ही रह गई हूँ,
किन्तु झुकना हमेशा
हार नहीं होता,,,,

सलीकामंद शाख़ों का
झुकना ज़रूरी है
जब परिंदे घर लौटें,,,

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नज़रें 'वि' की
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बार बार पढ़ा था मैंने उसके अल्फ़ाज़ को....उसको देख पा रहा था अपने ही सोचों के भँवर में फँसा हुआ. सोचता था चुप रहूँ या कुछ कहूँ....अंदर से आवाज़ आयी....कहना तो होगा क्योंकि कभी कभी ऐसी बातें दीवानी अपने असमंजस और उलझन के बीच मेरे reaffirmation की अपेक्षा के साथ भी कर बैठती थी,इसे सहज मानवीय स्वभाव कहूँ या उसकी उत्सुकता. चलिए मैंने अपनी 'ज्ञान' झाड़ने की कुलकुलाहट कुछ ऐसे मिटायी :

संतुलित जीवन,,,
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संवेदना
सौहार्द
संस्कारमयी स्निग्धता ने
कर दिया है
तुम्हारे क़द को ऊँचा
अपनों के बीच
ना जाने क्यों
माप रही हो ख़ुद को
समझ कर बौना,,,
थोपी हुई धारणाओं को
जीना हो सकता है
बौझ समझौतों का
किन्तु
चुनी हुई प्रतिबद्धतायें
होती हैं अलंकार हमारे,
कहा था ना तुम्हीं ने
होता है अनुभूति का सम्बंध
घटना से कहीं अधिक
मन स्थितियों से,,,

ज़रूरी है झुकना भी
लोग वरना
गुज़र जाएँगे पास से
पत्थर समझ कर,
झुकते हैं जो
साथ सजगता के
नहीं होती बेबसी उनकी
जी लेते हैं वो हुनर अपना
हर रिश्ते को निबाह कर,,,

सच है झुकती है
फलों लदी डालियाँ ही
मगर नहीं है लाज़िमी
झुक कर बना देना
खुदा किसी को,
नहीं है वांछित कोई भी चरम
एक संतुलित जीवन के लिए,,,

नसीहत नहीं
अनुभव है ज़िंदगी के
जीने का मंत्र है
शब्द त्रय
चेतनता, स्पष्टता और स्वीकार्यता,,,

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(Note : Deewani's version is an adapt of a poem of Vidya Bhandariji : With thanx and regards)





Sunday, 22 September 2019

निमंत्रण गहरायी मापने के लिए,,,(दीवानी सीरीज़)



निमन्त्रण : गहरायी मापने के लिए,,,(दीवानी सीरीज़)
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बहुत चाहती थी मुझे... प्रेम और आदर दोनो ही बेइंतहा...लेकिन
Egoist No. 1....मैं राजा हूँ तो बस उसका बनाया ही 😊नहीं तो कटु आलोचना....हमारे साम्राज्य की Queen The Empress जो थी वो, यद्यपि उसे Princess (राजकुमारी) कहलाना ज़्यादा पसंद था. कई रंग थे दीवानी के, देखिए ना उस दिन कुछ मनचाहा ना हुआ और हमें 'व्यर्थ' साबित कर दिया. रूपकों के प्रयोग में महारत !

व्यर्थ : बात दीवानी की
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समुद्र हुए तो क्या हुआ
प्यास किसी की भी तो
बुझाई नहीं,
समेट कर ख़ुद में
बेहद खारापन रखना,
बेतरह फैल कर
विशाल होना,
ऊँह !
अक्खा जीवन तो व्यर्थ,,,

( Adapt of a poem by Vidya Bhandariji  , with thanks and regards)

कैफ़ियत मेरी 😊 :
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मैं भी पक्का कलमबाज़ और कलाबाज़.....जता दिया कि मैं व्यर्थ नहीं हूँ.....तहे दिल से वो भी मानती थी, ऊपर वाली कविता exactly किस बात से ट्रिगर होकर घटित हुई उसका फ़िक्र भूलकर मेरे जवाब का लुत्फ़ लीजिए ना.

चले आना,,,
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माना कि मैं खारा हूँ
मगर अक्खी दुनिया से न्यारा हूँ,
जलाकर ख़ुद को
बन जाता हूँ मैं ही बादल
घूमता हूँ फेरीवाले के मानिंद
देने को पानी
सींचने खेतों को
बुझाने प्यास प्राणियों की
करने शीतल तप्त धरा को,,,

कहाँ हूँ मैं विशाल
समाया हूँ मैं तो एक बूँद में,
व्यर्थता और उपादेयता
हुआ करती है ना सापेक्ष
आँखों देखी भी
होती नहीं निरपेक्ष
निमंत्रण है चले आना
मापने मेरी गहरायी को,,,

ना जानो तुम ना जाने हम : विजया


ना तुम जानो ना हम....
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ना तुम जानो ना हम,सच हो या भ्रम
मंज़र कितना ख़ुशगवार और प्यारा है
मासूम सा ये जुमला ना जाने कितनों के
हँसी ख़ुशी से जीने का सहारा है...

मिले थे तुम हम से,मिले थे हम तुम से
अनजान थे हम दोनों इश्क़ ओ प्यार से
हुआ 'वो' क़ुदरतन सा था बीच जो अपने
बिना किसी मुकालम: ओ इज़हार से....

वो तुम्हारा मेरी पसंद की चटपटी खिलाना
कुछ भी दुःख लागे,बना बातें मुझे बहलाना.
ढाल सा संग रहना, कभी ख़ुद से ना झगड़ना
तुनक मिज़ाजी भूला कर मेरी, कैसे ही मना लेना...

वजह बेवजह वो मेरा इठलाना और इतराना
भूलाकर दर्द अपना मुझे देख कर मुस्कुराना
थाम कर हाथ साथ चलना, राहें सही दिखाना
जो भी हो बहुत मुश्किल करके उसे दिखाना...

बालपन के ये किस्से हसीं इबारतों से
अमिट से लिखे हैं सफ़हात जिंदगानी पे
हर घड़ी हरेक लम्हा वारि जाऊँ मैं दीवानी
इश्किया हुनर और मासूम तेरी मेहरबानी पे...

बिन बोले सब कुछ समझ जाते हो तुम
ख़ामुशी से बहुत कुछ कह जाते हो तुम
मेरी हर चोट को दिल से सहलाते हो तुम
सच कहूँ आज भी वैसे ही बहलाते हो तुम...

मख़मली नरमी देती सुकुने रूह मुझ को
छुअन तेरी जिस्मानी, रबानी तफ़ीह मुझ को
तेरी हर नज़र में नज़र आये मेरा महबूब मुझ को
नसीहत तुम्हारी में दिखे आला मुअल्लिम मुझ को...

तेरे हर ख़श्म में पोशीदा, मेरी ही भलाई
दिखती है उसमें चोटें जो अपनों ने है पहुँचाई,
मत जाना आँसुओं पे वो थकन ओ दर्द मेरा
हर बात अपनी में ज़ाहिर मेरी तेरी आश्नाई...

ख़ज़ाना तेरे प्यार का कितना अकूत है
तेरे जीने का हर पैमाना इसका ही सबूत है
जब भी चाहूँ, मुझ को तुम अपना हाथ देना
साँस आख़री तक बस यूँ ही साथ देना...

(मुकालम: =संवाद, dialogue. सफ़हात=पृष्ठ. रबानी=divine, ईश्वरीय. तफ़ीह=उपहार. मुअल्लिम=mentor, शिक्षक, मर्गदर्शक. खश्म=कोप,anger.
पोशीदा=छुपा हुआ. आश्नाई=मैत्री. अकूत=अगणनीय.)

चलते चलते :
😊😊😊
कृष्णधर्मा में संगी की साँची ये दास्ताँ है
नहीं है ये चालीसा, ज़िंदगी से बाबस्ता है
जीया है हम दोनों ने, जी आज हम रहे हैं
कहे अनकहे साझे सब ख़ुशी ओ ग़म रहे हैं 🙂

Thursday, 12 September 2019

कुछ अबूझ प्रश्न : विजया

स्वांत: सुखाय
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कुछ अबूझ प्रश्न.....
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(पिछले सप्ताह आसाराम के वक़ील साहब ९४ की उम्र में इस दुनियाँ से कूच कर गए. असाधारण प्रतिभा के स्वामी थे वक़ील साहब...बहुत कुछ पढ़ा उनके बारे में....जाने वाले की प्रशंसा सफल व्यक्ति के लिए सभी सीमाएँ तोड़ देती है ऐसा लगा...कुछ अबूझ प्रश्न है मेरे...)

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कुछ तो विशिष्ठ था उन में
जो कर पाए थे हासिल
इतनी बड़ी ऊँचाईयां
क्या था ऐसा ?

पढ़े गए हैं क़सीदे
संघर्षशीलता
सुस्पष्टता
कर्मठता
पेशे के प्रति समर्पण के
किंतु कितने ही
विरोधाभास और असंगतियाँ ?

कभी इस दल को नवाज़ा
कभी उस दल का पल्ला पकड़ा
एक ही तरह के दो इंसान
एक के लिए पसंदगी
दूजा नापसंद
कैसी थी स्पष्टता ?

देश से अगाध प्रेम का दावा
दलीलें बचाने के लिए
देशद्रोहियों और देश के दुश्मनों को
कहाँ थी सीमा रेखा ?

सार्वजनिक जीवन में
प्रामाणिकता की पक्षधरता
विधान के प्रति आस्था का दावा
प्रतिनिधित्व प्रकट भ्रष्टाचारियों
विधान प्रवंचकों का
कैसी थी यह आस्था ?

कहने को कह दिया
दोनों बाख़ुशी साथ थी
प्रश्न किंतु अनुत्तरित
क्या थी वास्तविक अपर्याप्तता जो
करना पड़ा था गोपन विवाह
सहकारी के संग ?

प्यार हुआ था किसी से
सम्बंध बन जाते थे
हर सहमति दात्री से
बदलते साथी कार्यक्रम चलता रहा
कैसी थी प्रतिबद्धता ?

कामयाबी
जीवन के किसी हिस्से की
नहीं बना देती फ़िलोसोफ़ी
पूरे जीवन की,
नहीं इनकार ख़ासियतों से
मगर ढकना ढांपना कमियों को
सफलता के लाबादे में ये कैसा ?

ख़त का कोई जवाब अब नहीं आता....


ख़त का कोई जवाब अब नहीं आता,,,
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खुली आँखों में  ख़्वाब अब नहीं आता
मेरे ख़त का कोई जवाब अब नहीं आता,,,

चाहत की राहत गुज़र गई ऐसे
मेरे दीदार का इज़्तिराब अब नहीं आता,,,

बातें मोहब्बत की बेमानी हुई अब तो
रात की तीरगी में महताब अब नहीं आता,,,

भूल चुका वो अहद किये सारे यारब
बेगैरत चेहरे पे हिजाब अब नहीं आता,,,

मायने अशआर के मुख़्तलिफ़ हुए देखो
लबे साक़ी पे जामे शराब अब  नहीं आता,,,

(दीदार=दर्शन, इज़्तिराब=व्याकुलता/बेचैनी, तीरगी =अँधेरा, महताब=चंद्रमा, आहद-वादा, बेग़ैरत=लाज रहित, हिजाब=पर्दा, आशआर=शेर-couplets का बहु वचन, मुख़्तलिफ़-उलट, साक़ी=सुरा बाला)