खुले हैं दरवाज़े....
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चाही थी तुम ने :
एक जगह मोहब्बत की
दूर हो जो खता ना बक्सने वाली
शदीद जिन्सी ख्वाहिशें की
आतिश से,
एक जगह जुड़ाव की
परे हो जो रिश्तों को गाँठों में
बाँधने वाले रस्सों से,
एक जगह रजा मंदी की
दूर हो जो कट्टर फ़ैसला साजी की
टेढ़ी नज़रों से,
एक जगह आज़ादी की
परे हो जो नेकी बदी के
बेहूदा भेदों को जताती
समाजी किताबों के सफ़ों से,
एक जगह चैन की
मुहैय्या हो जो
बिना कोई शर्त लगाये
करते हुए तस्लीम
'जैसे हो तुम वैसे' को
पूछा था मैं ने :
क्या जानते हो तुम ऐसी किसी जगह को ?
कहीं ज़्यादा तो नहीं है ना मेरा यह पूछना ?
कह रहे थे तुम जैसे अपनी ही एक खामोशी में :
तलाश के खेल में थका हारा
खोज रहा हूँ आज भी तो मैं
जवाब इसका.....
और सुना होगा तुम ने मेरे मौन में :
देखो जानती हूँ मैं ऐसी एक जगह को
जो बनायी थी मैंने तुम्हारे लिए
दिल में मेरे,
बेचैन है वो आज भी
तुम्हारे लौट आने के इंतज़ार में,
खुले हैं दरवाज़े
चले आओ बिना कोई शर्त के...
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(शदीद=तीव्र/severe,जिन्सी खवाहिशें=वासनाएँ/lust
रज़ामन्दी=स्वीकृति/acceptance
फ़ैसला साजी=जजमेंटल होना
नेकी बदी=भलाई -बुरायी, अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य (समाज के बनाए नैतिक मापदंडों के संदर्भ में, तस्लीम=स्वीकार)
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