Tuesday 14 May 2019

विनम्र सीखें प्रकृति की : विजया


विनम्र सीखें प्रकृति की......
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टहलते हुए समुद्र तट पर
झुनझुनी झागदार
लहराती हुई उत्ताल लहरें
खाती है हिलोरे देर तक
पेरे पाँवों के ऊपर से होते हुए,
मानो हो कोई नन्हें नन्हें चुम्बन
और लौट जाती है फिर बारम्बार.....

नमकीन हवा में साँस लेने के दरमियान
हो जाती हूँ विस्मित मैं
बलशाली महासागर के रुआब से,
इस ग़ज़ब समां में
सहज सुखद झोंके
करते रहते है स्पर्श मेरा
उड़ाते हुए मेरे दिमाग़ में जमी गर्द को.....

जीवंत साँस लेते लेते मुझे
प्रतीत होता है
भव्य समुद्रीझागों के विस्तार का
चौंका देने वाला सौंदर्य
एक विशाल तरल केक सा
जाजवल्यमान फेनिल नोकों से सज़ा धजा....

बताते हैं रोमांचक छपाके जोशीले जल के
उत्कृष्ट रंगों एवं आकार प्रकार वाली
तृप्त जीवन की भरपूरता को
विद्यमान है जो सतह के नीचे
बिलकुल गहराई तक
जैसे हो एक दुनियाँ में एक और दुनियाँ.....

निर्मल कर देने वाली
सुकून भरी शांति की चेतना
गुज़र जाती है जो हो कर मुझ से,
और पिघला जाती है
ज़िंदगी की नगण्य नाराजगियों को
जैसे कि जिव्हा पर हिम कण...

कृतज्ञ हूँ
नतमस्तक हूँ
प्रकृति की इन समस्त विनम्र सीखों के लिए....

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