Wednesday, 22 November 2023

अर्धनारीश्वर : मेहर

 अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस पर 

••••••••••••••••••••


अर्धनारीश्वर...

***********

पा चुका है समर्थन 

विज्ञान और मनोविज्ञान का 

बुनियादी सिद्धांत अर्धनारीश्वर का...


कहानी पौराणिक है 

बाँट दिया था अपनी काया को 

दो हिस्सों में 

ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के क्रम में,

'का' बना पुरुष 'या' बनी स्त्री 

मनु और शतरूपा 

और 

बने दोनों मूल इस मैथुनी सृष्टि के

उत्पति हुई इस धरा पर मानव की 

दोनों के मेल से...


नहीं है संपूर्ण स्वयं में

अकेला  पुरुष या स्त्री अकेली,

पश्चात अपनी रचना के 

भटक रहा है पुरुष

तलाश में अपने आधे हिस्से की,

आधे हिस्से की उपलब्धि का सुख

टुकड़ों टुकड़ों में

मिलता है उसे कभी मां में

कभी बहन में, कभी प्रेमिका में, 

कभी जीवन संगिनी में 

कभी स्त्री मित्रों में

चैन किंतु फिर भी नहीं...


नहीं मिट पाता है ताउम्र 

यह एहसास अधूरेपन का,

तलाश संपूर्णता की 

पूरी होगी उसके अपने अंदर ही,

महत्वपूर्ण है 

धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष से भी...

अपने भीतर के स्त्रीत्व से साक्षात्कार...


पहचान लेगा पुरुष जिस दिन 

अपने भीतर की स्त्री को 

और उतार लेगा अपने जीवन में 

उस जैसा प्रेम, ममत्व, कोमलता और करुणा 

हो जाएगी पूरी तलाश उसकी स्वयं की,

निहित है इसी में 

हल उसके अंतर की ऊहापोह का 

और दुनिया की समस्याओं का भी,

नहीं करनी होगी उसे आकांक्षा  

पृथ्वी से इतर किसी स्वर्ग की

होकर मुक्त हिंसा, क्रूरता और निर्ममता से 

बन जाएगी स्वर्ग स्वयं यह दुनिया...

Saturday, 18 November 2023

मैं हूँ कि तुम हो : धर्मराज भाई


=============

"मैं हूँ कि तुम हो" बड़ी ही प्यारी सूफियाना नज़्म है धर्मराज भाई की, उस पर ये दो Couplets मैं कमेंट्स में extempore लिख पाया.

************************


तबर्रुक हो मुबारक 

जल जल कर बुझने वाले,

हिद्दत भी है यक तजुर्बा 

राज ए हसरत छुपाने वाले...


सहारे होते हैं बहाने 

होता मतीन वजूद ही किसी का, 

भटका कोई छड़ी लेकर 

मगर रास्ता था उसी का...


*******************

तबर्रुक=प्रसाद (जैसे मंदिर में मिलता है)

हिद्दत=उग्रता/ ऐंठन/प्रकोप 

मतीन=महत्वपूर्ण, गंभीर 


नज़्म में भी पहले दो अल्फ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं.



मैं हूँ कि तुम हो 

~~~~~~~~


होके फ़लक सा ओझल 

ज़रा सा ये जो नज़र आता हूँ 

पत्थर के मानिंद 

मैं नहीं हूँ 

तुम्हीं हो 

रख छोड़ा है अनजाने में तुमने खुदी को 

मेरी शक्ल में 

कि एक दिन ज़िंदगी के थपेड़ों ठोकरों से लुढ़कते लुढ़कते 

तुम्हें किसी अनहुए से हुए सहारे की दरकार होगी 


ये जो तुम खूब नज़र आते हो 

मौजे हिद्दत के माफ़िक़ 

मैं ही हूँ जो 

मैं सा बुझकर 

तुम सा धधक उठा हूँ लेकर हुनर बुझन का

कि एक दिन 

चख सकूँ तबर्रुक

तुम होकर भी बुझ चलने का 


मैं तुम हूँ मेरी शक्ल में 

कि तुम मैं ही हो तुम्हारी शक्ल में 

ज़िंदगी का ये राज बयाँ 

कर करके भी क्या ख़ाक करिए 

कभी ये राज बयाँ हो ही न सका होने का 

जो बयाँ हो गया 

कहाँ वो राज फिर राज रहा 


                                        धर्मराज 

                                  02/10/2023

संबंध : आकृति

 सम्बन्ध

******

सम्बन्धों में बातें होती है 

एकत्व की, विलय की 

एक प्राण दो देह की 

आत्मिक जुड़ाव की 

और भी बहुत से 

मुहावरे और कहावतें 

किंतु क्या संभव हुआ है 

दो व्यक्तियों का एकमेव हो जाना ?


बहिरंग में देखें तो 

आकार प्रकार अलग 

आँखों की पुतलियाँ अलग 

उँगलियों के निशान अलग 

अंतरंग में देखें तो 

आत्मा अलग 

जीव अलग 

पूर्वजन्म की योनि अलग 

ऋण बंधन और कर्म बंधन अलग....


सम और बन्ध

मिलकर बना है सम्बन्ध

अपेक्षा है सम की 

व्यवहार में 

अनुभूति में 

अभिव्यक्ति में 

मुखर हो या मौन 

किंतु मूल में दीर्घ काल में 

सम को करना होगा मैंटेन 

विषमता है घातक संबंधों के लिए....


आदान प्रदान 

अंडर करंट है संबंधों का 

परस्पर आदर 

एक दूजे को स्पेस देना 

आपसी समझ और सहनशीलता 

सीमाओं की विवेक सम्मत स्वीकृति 

यही तो बनाए रखता है रिश्तों को....


हम तुम एक हैं 

वादा करते हैं ज़िंदगी भर साथ रहेंगे 

हमेशा वफादार रहेंगे 

बहुत सुंदर मिशन स्टेटमेंट 

प्रतिबद्धता, निष्ठा से निबाहना 

ऐक्शन प्लान 

सहजता, अकारणता, प्रयासरहित 

शब्द पलायन है सच से 

एक जाना अनजाना षड्यंत्र 

किसी को टेकन फॉर ग्रांटेड लेने का....


मानवकृत होते हैं सम्बन्ध 

मान भी लें कि ताल्लुक़ है उनका 

जन्म जन्मांतरों से 

लेकिन इन्हें जीना तो होता है हमें 

दिन प्रतिदिन here and now

ठीक वैसे ही जैसे 

ख़ाना पीना, सोना जागना 

साँस लेना, नित्यकर्म पूरे करना 

ड्रेस अप होना, बीमार और स्वस्थ होना 

पढ़ना, अर्जन सृजन विसर्जन करना 

ये सब हम जब सप्रयास करते हैं 

तो रिश्तों में क्या है ऐसा 

जो जारी रह सके बिना श्रम के ?

जय भवानी : आकृति

 "जय भवानी"

**********

इतिहास गवाह है 

कि बहादुर क्षत्रियों ने 

"जय भवानी" 

उद्घोष संग युद्धों में 

दुश्मन के छक्के छुड़ाए थे...


इतिहास इस बात का भी गवाह है 

क्षत्राणियाँ साक्षात भवानी बन 

आन बान और शान के लिए 

जौहर जी ज्वाला में 

अपनी आहुति हंसते हंसते दे देती थी...


"चुण्डावत माँगी सैनाणी

सिर काट दे दियो क्षत्राणी" की 

कहानी नहीं है अनजानी 

झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई 

आज़ादी की अनुपम दीवानी 

रानी दुर्गावती थी ऐसी वीरांगना

छोड़ी है जिसने अमिट निशानी...


ले ली है करवट समय ने 

बदल गई सारी अवस्थाएँ 

प्रजातंत्र अब देश हमारा 

विगत हुईं राजतंत्र व्यवस्थाएँ 

किंतु हम वीरांगनाओं को 

वही साहस दिखलाना  है 

नारी उत्पीड़न के ख़िलाफ़ 

और 

स्त्री सशक्तीकरण के लिए 

बुलंद आवाज़ उठाना है 

"जय भवानी" की गूंज के साथ 

विजय श्री को पाना है...

खोया हुआ महबूब...

 खोया हुआ महबूब 

**************

बरसों के अंतराल के बाद 

छुआ है तुम को 

कितने बदल गये हो,

कहाँ गया कच्चापन-अधूरापन 

नहीं नज़र आ रहा है वो अल्हड़पन !!


दिख रहा है सब कुछ सुघड़ सा 

सजा धजा सा

कंसीलर ने ना जाने क्या क्या छुपा दिया है 

यह सीरम, फाउंडेशन और उस पर 

ज्यूँ परत हो फेस क्रीम की 

पूरी देह पर जैसे 

गहरा बॉडी लोशन मल लिया है 

वैक्सिंग, मैनीक्योर,पेडि-क्योर ने 

स्मूथ कर दिया है सब कुछ 

हेयर स्टाइल बिलकुल बदल गई है 

ऑई लाइनर ने आँखों की गहराई बढ़ा दी है 

लिप-कलर ने ज्यूँ होठों में जान भर दी है 

उभारों को सुडौल दिखाने 

ज्यूँ पैडेड सपोर्ट पहना है 

एक अपरिचित सी तेज़ गंध फूट रही है बदन से

शहरी बाबूओं की नज़रों में 

सेक्सी हो गये हो तुम

लेकिन मैं ठहरा गवईं, 

मुझे तो लग रहे हो तुम 

एक सजी सँवरी बेजान मूरत से 

सच कहूँ नितांत अजनबी से लग रहे हो तुम !!


अचानक दिल में एक टीस सी उठी है 

आँखों से पैनाले बह चले हैं 

तुम हाँ तुम....कोई और हो

खोज रहा हूँ मैं तो 

अपने खोये हुए महबूब को !!


(महबूब से मतलब अपने गाँव से है)

मैं हूँ राधा : विजया

 मैं हूँ राधा...

+++++

मैं हूँ प्रेम की पूर्ण परिभाषा 

मैं हूँ प्रेम की आबोली अनलिखी भाषा...


मैं हूँ राधा,

मैं नहीं हूँ आकर्षण 

रूप और यौवन का 

ना हूँ मैं पिपासा अधरों की 

ना ही मैं रसिक का रास हूँ 

ना हूँ मैं कोई मूरत माटी की 

ना ही मोहताज 

किसी परिपाटी की...


कान्हा !

मैं तो हूँ अंदर तुम्हारे

बाहर कहाँ ?

कहाँ हूँ मैं अलग तुम से 

झांको ज़रा

मैं हूँ समायी तुझ में

देखोगे तुम यदि बाहर 

पाओगे बिछुड़ी हूँ तुम से मैं...

ऐसे में मेरे कान्हा !

कैसे समेटोगे मोहे 

अपनी बाहों में ?


कान्हा !

दूर हो कर भी 

तुम्हारे सब से पास हूँ 

मैं तो तुम्हारी श्वास-निःश्वास  हूँ 

तुम्हारे अश्रु हूँ, तुम्हारा मृदु हास हूँ 

मैं तुम्हारे हृदय की एकाकी आस हूँ....


कान्हा !

मैं ही तुम्हारी तन्हाई हूँ 

मैं तो तुम्हारी परछाई हूँ 

तुम्हारे सभी संबंधों में गौण हूँ 

मैं तो बस एक चिर मौन हूँ 

तभी तो प्रश्न यह अबूझ 

जिह्वा पर सब के 

मैं कौन हूँ, मैं कौन हूँ ?