Thursday 6 August 2020

प्रतीति : विजया


प्रतीति....

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हो गयी थी मैं आदी 

अनावृत देह पर हो रही 

ठंडी धातु के स्पर्श की अनुभूति की,

आदी उस थोपे हुए पल की 

जिसमें नहीं उभर पाते थे 

कोई भी स्पंदन

मेरी कोमल मृदुल त्वचा पर, 

आता था प्रबल ज्वार 

जब जब रक्तिम सरिता में 

रंग देता था वह 

किसी समय के श्वेत रहे केनवास को 

आवेगों के विप्लाव जैसा,

मेरे कपोलों पर भटके भटके आंसू 

रचते थे मंज़र सावन भादो का,

शोकाकुल आँगन का दृष्टांत बनी 

अटकी अटकी सी हुआ करती थी 

मेरे रुँधे गले में घुटती सी सिसकियाँ,

ले ली थी दर्द और उदासी ने 

जगह सुन्नता की,

आदी हो गयी थी मैं

अधूरेपन को बताती हुई 

लाल धारियों और चकतों की 

जो करते थे अनुसरण 

उस वहशी भावहीन हरकत का...


मेरी अपनी उँगलियाँ ही

फिरने लगी थी चुम्बक की तरह 

खोजते हुए अधभरे घावों को 

तलाशते हुए हल्के पड़े खरोंचों के निशानों को,

सहलाया था उन शिलालेखों को मैं ने 

अपने समस्त प्यार से 

करते हुए महसूस 

मेरी त्वचा के बाहर और अंदर की कोमल बुनायी को,

चकित थी मैं पा कर 

कुशल हूँ मैं स्वयं के उपचार के लिए 

सबल हूँ मैं अपने घावों को बारम्बार भरने के लिए,

हो गयी थी प्रतीति मुझको

पूर्ण समर्थ हूँ मैं सब कुछ के लिए 

देख समझ ली थी मैं ने सबलता 

अपनी आरोपित निर्बलता में...


(अपनी एक सहेली की feelings को शब्द देने का अधूरा सा प्रयास)

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