Wednesday 29 April 2020

ज़हर,,,,



ज़हर,,,,
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धुल जाते हैं रंग ज़िंदगी के
दिलोज़ेहन के झंझावतों और तअस्सुबात की बारिश  में,
छूट जाता है फीका मटमैला सा पानी
बहने लगता है जो मुझ में ही
मेरी कच्ची माटी की पगडंडियों के बीचो बीच
कोलतार की तरह काला चिपचिपा सा कुछ,,,

यह ज़हर शुरू करता है टकराव
अरक की पहली बूँद के साथ,
और फैल जाता है मानो मेरे सारे जिस्म में
हो कर बेक़ाबू बिना किसी इद्राक़ के
ढाँप  लेता है मेरी हड्डियों को
मेरे बाजुओं के आर पार
और फैल जाता है
मेरी टांगों, पाँवों, सिर और चेहरे पर भी
निगल जाता है मेरे बीते कल के जज़्बातों को
बिना छोड़े कुछ भी बाक़ी,
बढ़ता जाता है धीमे धीमे
लेते हुए मुझे अपने बेसुध आगोश में
धकेलते हुए अपनी फरमाबरदारी की राह पर,,,

कर देता है तब्दील यह ज़हर
मेरे ख़ुशनुमा दिन को एक काली सी वीरान तारीख़ में
मथने लगता हैं यह यह मेरे बदन की गहराई में
नापैद हो जाती है मेरी मुस्कान
गुमसुम हो उठता हूँ मैं,
कोई नहीं देख पाता  इस ज़हर का
मेरे बाहरी जिस्म को लपेट लेना
नहीं जान पाता मैं जो भी हो रहा होता है इस लम्हा ,
हाँ कर देता हूँ ज़ाहिर इसे मैं अपनी नाराज़ी में,
कोई नहीं कर सकता मुझसे बात
क्योंकि मैं हो जाता हूँ ग़ैर रज़ामंद ख़ुद से ही
एक गहरी खामोशी में डूबकर,
बोलता है यह ज़हर मुझ से तब
जैसे फुसफुसाते हुए मेरे कानों में :
"भूल जाओ तुम सारे रिश्तों को
तुम्हें बहोत छोटा समझते हैं वो
एक निपट बेवक़ूफ़ उज्जड मसखरे सा
देखो ! मैं कहता हूँ आख़री बार तुम्हें
छोड़ दो उन सब को जानते हो जिन जिन को
क्योंकि मैं हमेशा से तुम्हारा हिस्सा हूँ
और फिर कल मिलोगे मुझी से तुम.."

फिसलने लगता है यह ज़हर मेरी चमड़ी पर से
रेंग जाते है ख़ौफ़ज़दा ख़्वाब अपनी खाई में
बंद हो जाता है ज़हर जैसे
मेरी रूह में हमेशा के लिए...
मगर नहीं हैं मक़सद मेरा
ढेर हो जाना उसकी ख्वाहिश के मुताबिक़,
मेरी मंज़िले मकसूद
ज़हर नहीं आबे हैवाँ है
कीन नहीं खुलुश है
नफ़रत नहीं मुहब्बत है
मगर सब से पहले ख़ुद अपने लिए
फिर कुदरतन औरों के लिए
होते हुए आज़ाद झूठी निस्बतों से,,,

(तअस्सुब=पूर्वग्रह, इंद्राक़=बोध/sense, फ़रमाबरदारी=आज्ञाकारिता, नापैद=ग़ायब, कीन=द्वेष/घृणा, आबे हैवाँ =अमृत,खुलुश=सौहार्द, निस्बतों=संबंधों)

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