कुछ तुम से कुछ मुझ से कहला दे...
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शिकवा है ना तुम्हें
नहीं बैठती मैं
अब पास तुम्हारे पहले की तरह,
नहीं करती गपशप
नहीं पूछती हाले दिल ???
हाँ ! सही है
जी हाँ ! बिलकुल सही है
तुम्हारा यूँ महसूस करना
हम्म ! दरअसल बात यह है
ज़िंदगी की भागमभाग में
रिश्तों की ऊहापोह लिये
कब बैठ पाती हूँ मैं
ख़ुद के पास भी...
सुनो ! देख कर आस पास
लगता है
बहुत कुछ बदलता
ठंडी आग सा जलता
गरम बर्फ़ सा पिघलता
नश्तर सा चुभता
फिर भी मरहम सा लगता,
कभी चाँदनी में नहाये
सुनहरी 'धोरों' सा
ऊँचा और फैला फैला
चढ़ते सूरज के असर से
थार की बालू सा तपता
और कभी बंद मुट्ठी से
रेत सा फिसलता फिसलता...
छोड़ों इन सब को !
चलो पी लें फिर से
उसी चाय खाने में लौंग वाली चाय
बैठ कर साथ साथ,
जो तेरी 'हूँ' 'हाँ' 'अच्छा' से 'हट' कर
कुछ तुम से
कुछ मुझ से
कहला दे !!!
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