हर मौसम बाग़ में हमारे...
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उग आए हैं बीज
जो निहाँ थे राज होकर
गहराई में तुम्हारी,
है लबों पर मुस्कान तुम्हारे
उदासी हैं मगर मर्कज़े चश्म में,
झाँकते हो तुम
जब जब मेरे आइना ए दिल में
मुड़ जाते हो बरबस
पाकर कोई अजनबी अपने ही अक्स में...
जानती हूँ मैं हाल
तुम्हारे हर पत्ते और बूटे का
हर जुड़े और टूटे का,
सहलाते हुए हर चोट
समझाते हुए हर खोट
मिला कर क़दम से क़दम
खोजती रहती हूँ दिन रात
उन गुमशुदा गुलों को
जो खिला करते थे हर मौसम
हमारे बाग ए ज़िंदगानी में...
(निहाँ=छुपा हुआ, मर्कज़=केंद्र,चश्म=आंख)
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