Tuesday 1 January 2019

नहीं जानती मैं...: विजया

शब्द सृजन : निपुण 
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नहीं जानती ना मैं.....
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किंकर्तव्यविमूढ हूँ मैं...
कह सकते हो तुम
अस्तव्यस्त हूँ
होती नहीं कभी भी पटरी पर 
बनी रहती हूँ मैं 
उन्मादी हरदम...

चाहती हूँ 
समझ पाऊँ सब कुछ 
परिभाषाओं और प्रतिक्रियाओं को 
मिज़ाज और मानसिकताओं को,
दुखद है बस इतना ही 
ना जाने क्यों 
यह सब नहीं है मेरे हाथों में....

बेहतर है होना 
नहीं होने से,
चाहती हूँ 
रख पाऊँ ख़ुश तुम को 
दुखद है बस इतना ही है 
नहीं जानती मैं 
कैसे कह पाऊँ यह तुम को 
कब कहूँ और क्या कहूँ....

नहीं हूँ ना निपुण मैं 
जो पहुँच पाऊँ तुम्हारी उलझनों तक 
छू पाऊँ तुम्हारी गहराइयों को,
नहीं कर पा रही हूँ शायद 
इसीलिए ही महसूस 
कि हो पाऊँगी मैं 
सहयोगी तुम्हारे लिए....

पूछ सकते हो तुम मदद के लिए 
शैतान से या भगवान से,
मेरा क्या 
नहीं जानती ना मैं तो 
कुछ भी...

हाँ बसे हो 
रग रग में मेरे ख़ून हो कर 
हाँ सहज हो मेरे लिए तुम 
साँसों की तरह 
सिफ़र हूँ मैं बिना तुम्हारे 
और तुम बने फिरते हो वक़ील सिफ़र के 
देकर उसको एक शास्त्रीय नाम 'शून्य'
अधूरा है मेरा होना 
तुम बिन,
अरे ! कहते हो ना तुम्हीं तो 
एक ही है शून्य और पूर्ण😊...

(दशकों पहले की रचना का संशोधित और परिवर्धित संस्करण.....😊😊😊)

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