दर्पण और झरोखा,,,,
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चन्द बातें दर्पण की :
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मिथक ही तो है
कि नहीं बोलता है
झूठ दर्पण,
भ्रम ही तो है कि
जो है उसे वैसा ही
दिखा देता है दर्पण,,,,,
बिम्ब प्रतिबिम्ब
प्रकाश अंधकार
रेखा और कोण का
खेल खेलते खेलते भी
निरीह ही कहलाता है दर्पण,,,,
अवतल उत्तल समतल
कई रूप लिए
बदल कर रूप हमारा भी
दिखा देता है दर्पण,,,,,,
संस्कारो और अनुकूलन का
सरमाया लिए
न जाने क्या क्या लीलाएं
रचा डालता है दर्पण,,,,,
भ्रमित सशंकित आलोचक
मताग्रही सैद्धांतिक हो कर
न्याय या समाधान कुछ भी
नहीं कर पाता है दर्पण,,,,,
बात झरोखे की :
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दिखता है झरोखे से
जस का तस
बिना किसी माध्यम के
बिना किसी अनुकूलन के
जो जैसा है वैसा ही
स्पष्ट दृष्टि से,,,,,,,
चंद बातें आगे की :
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बुनियादी है भेद
दर्पण और झरोखे का
एक में है पक्षपात
दूजे में आज़ाद नज़र
चुनाव करना है हमें
औरों के लिए नहीं
बस अपने स्वयं के लिए,,,,,
आच्छादित है सभी आत्माएं
अपने अपने कर्मों संस्कारों से
जकड़ी हुई हैं वे
जन्मों से संजोये
ऋण बंधनों से,,,,,
बहिरंग से अंतरंग की यात्रा
हुआ करती है
अपनी अपनी,
होते हैं अनगिनत पड़ाव भी
अपने अपने,
बदल सकता है मानव
केवल मात्र स्वयं को,,,,
तो क्या किया जाय :
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क्यों न झाँके और देखें हम
झरोखे से जस का तस
मुक्त रह कर
अपने दर्पण से
उतार दें रंगीन चश्में
देखें हर होनी अनहोनी को
बन कर साक्षी
बिना किसी निर्णयात्मकता@से,,,,
क्यों ना देख पायें हम
होकर परे
तल और आग्रह के प्रभाव से
मेरे और तेरे के भाव विभाव से
दर्पण से नहीं
झरोखे से,,,,,,
@judgmental approach