Sunday, 29 December 2024

निमिष निमिष

 निमिष निमिष 

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छद्म सी अनुभूति ही तो है विगत 

पद चिह्न है मात्र 

छूटे हुए रेत पर  

बस एक  लकीर है 

खींची हुई निहायत सूखी बालू पर

सांप तो कब का गुज़र गया 

और ना जाने कहाँ चला गया

पीटे जा रहे हैं हम बस लकीर को,,,,


जीते जा रहे हैं हम मगर 

चिपक कर उसी विगत से

नहीं रहा है जिसका कोई अस्तित्व 

क्यों ना कह दें हम स्वयं से 

बीत गई सो बात गई,,,,


जो ज्ञात वह : विगत 

जो अज्ञात वह : भविष्य,

बनाकर बिम्ब विगत का

खींच दिया है हमने 

खाका भविष्य का 

कल्पना की लकीरों में 

भर दिए हैं रंग उसमें 

लेकर उधार  विगत से,

भला कैसे बना सकेंगे हम 

रूपरेखा उसकी 

जो अज्ञात है मूल में ?


छोड़कर विगत और भविष्य में जीना 

जिया जाय वर्तमान में 

होकर उत्साहित 

होकर प्रसन्न

होकर आनंद चित्त 

होकर तल्लीन

निमिष निमिष,,,,


कल का आज ही तो 

आज का भविष्य 

कोई भी आज 

अच्छा जिया हुआ 

पूरा जीवन अच्छा जिया,,,,


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योग वशिष्ठ पर सुरेश बाबू की प्रस्तुति और उस पर विजय भाई साहब और रोबिन के कमेंट्स पढ़ कर मेरी कलम भी तनिक मचल गई, और घटित हुई यह प्रस्तुति जो

योग वशिष्ठ के इस श्लोक से प्रेरित है : 


भविष्यं नानुसन्धत्ते नातीत चिन्तयत्यसौ।

वर्तमान निमेष तु हसन्नेवानुनर्तते।।


'भविष्य का अनुसंधान नहीं, न अतीत की चिन्ता, हंसते हुए वर्तमान में जीना.'

Monday, 17 June 2024

चार द्वार

 चार द्वार 

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अयोध्या में व्याप्त शांति और शांत चित्तता के मध्य 

कुंवर राम ने देखे थे निशान दुख के जन मानस में,

सोचते थे राम :


क्या अर्थ है उस जीवन का जो भरा हुआ हो दुखों से ?

कैसे हुआ जाय मुक्त जीवन के गमनागमन की पुनरावृत्तियों से ?

क्या संभव है मोक्ष और कैसे ?


पिता दशरथ की आज्ञा ले कर ऋषि विश्वामित्र ले आये थे राम को सप्तऋषियों में एक ऋषि वशिष्ठ के पास जिन से राम को जीवन का मार्गदर्शन मिला. 


वशिष्ठ और राम के इस संवाद में गहन दार्शनिक विवेचन और संकेत थे जिन को राम ने अपनाया. ऋषि वाल्मिकी ने इस संवाद जिसे "योग वशिष्ठ" कहा जाता है उसकी केंद्रीय थीम को लिपिबद्ध किया.


मैं इस संवाद की अपने लिए अपनी समझ को शेयर कर रहा हूँ. ना तो यह किसी शास्त्र की व्याख्या है ना ही कोई शब्दानुवाद या भावानुवाद. बस अपने को एक स्वान्तः सुखाय संबोधन. जिसको जितना अनुकूल लगे अपना ले अन्यथा इग्नोर कर दें. 💚💜❤️🙏


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आत्मबोध तक पहुँचने हेतु 

गुजरना होगा चार द्वारों से :


शांति 


संतोष 


सत्संग 


स्व-चिंतन 


पहला द्वार : शांति 

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शांत है जिसका मन 

होता है वह स्वतंत्र द्वन्दों से :

यथा पसंद-नापसंद,लगाव-दुराव,

सुख दुख...


बने रह कर होशमंद 

अपनाते हुए साक्षी भाव 

ला सकता है मानव 

संतुलन और समग्रता 

अपनी मनःस्थितियों में,

हो सकता है योग और ध्यान एक नुस्ख़ा 

शांत मनस्थिति हासिल करने का...


दूसरा द्वार : संतोष 

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पा लें प्रसन्नता संतुष्टि में,

नहीं है चिर आनंद अर्जन और संग्रहण में 

आनंद है अनावश्यक के विसर्जन में 

सर्वोत्तम है रहना संतुष्ट 

'जो कुछ है पास अपने' से...


उचित है होना उमंगी 

अपने उच्च लक्ष्य को पाने को

किंतु नहीं है प्रसन्न हम 

जो पहले से प्राप्त है उस से 

और रखते हैं लोभ 

अधिक और अधिक पाने का,

पायेंगे हम कुछ भी नहीं 

सिवा अफ़सोस के...


तीसरा द्वार : सत्संग 

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साथ सहृदय, संवेदनशील 

सुबुद्धि धारी, सकारात्मक, रचनात्मक लोगों का 

करता है मुक्त मतिभ्रमों से 

आती है जागरूकता इस से 

करती है जो प्रशस्त 

मार्ग आध्यात्म का  

पथ स्व-मुक्ति का...


चतुर्थ द्वार : स्वचिंतन 

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यदि लें लौकिक अर्थों में 

करना निरंतर अवलोकन 

स्वयं के विचारों और कलापों का 

करते रहना संशोधन कस कर उन्हें

उपयुक्त-अनुपयुक्त की  कसौटी पर 

कहा है लिन यूतांग(*) ने :

मिटाते रहो व्यर्थताओं को...


देखें यदि आध्यात्म की दृष्टि से 

अवलोकन में अंतर्निहित होगा :

उतरना अंतर की गहराई में 

करते हुए जिज्ञासा : कौन हूँ मैं ?

मिलेगा उत्तर :

नहीं हूँ मैं देह, ना ही मन 

देह तो होगी समाप्त एक दिन 

मन है गठरी विचारों की 

हम तो हैं अजर अमर आत्मा 

जिसमें निहित है 

चेतना हमारे अस्तित्व की...


(*)

"The wisdom of life consists in the elimination of non-essentials."--Lin Yutang (Chinese/Taiwanese Philosopher)

Monday, 22 April 2024

पुरानी डायरी

 

पुरानी डायरी 

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टटोलते टटोलते 

एक भूले बिसरे दराज को 

मिली है आज एक डायरी पुरानी 

जर्जर हो गई है 

कुतर भी डाला था चूहों ने 

मेरी ख़ुद की ख़रीदी मुफ़लिसी के दिनों में,

जिल्द जैसे घायल जिस्म हो 

युद्ध में लड़े थके फ़ौजी का 

पन्ने उसके पीले और बदरंग 

मेलन्यूट्रिशन, एनीमिया या डिप्रेशन के 

शिकार इंसान की चमड़ी जैसे 

कहीं कहीं टूटे हुए 

और कहीं तो फटे हुए भी 

सूख कर और पुराने पड़कर 

इतने कमज़ोर 

कि पलटने से ही कोई टुकड़ा 

अलग होकर हाथ में आ जा रहा है...


कुछ कुछ सफ़हों में लिखा हुआ 

तो ज़्यादातर ख़ाली 

ख़ाली पन्नों पर ऐसे ऐसे दाग 

किसी  इंसान के बोलते,रोते, हंसते चेहरों से 

या कोई जानवर के अक्स से 

या रेगिस्तान की पीली आँधी से,

बरकरार  है मगर 

गाढ़ी काली स्याही से लिखे हर्फ़

जो दिल और ज़ेहन की हालत 

या नफ़सियाती दौरों के असर से 

कभी खूबसूरत, कभी लड़खड़ाते,

कभी उदास, कभी उदासीन 

कभी चहकते, कभी चिड़चिड़े

कभी थमे हुए तो कभी भगौड़े हैं...


देखे जा रहा हूँ 

इस हासिल को

कर रहा हूँ महसूस 

कभी छूकर, कभी सोच कर 

कह रहा हूँ मन ही मन

"जाने कहाँ गए वो दिन ?"